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प्रेम,शांति, आनंद,मोक्ष और भगवत कृपा प्रदायिनी अनुभव और अनन्त भावपूर्ण प्रेरणाएं

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Friday, March 27, 2020

पूर्ण समर्पण ,भाग.3

पूर्ण समर्पण

भाग. 3


_/\_
अपने अर्जित समस्त ज्ञान ,बल और बुद्धि को
ही सर्वश्रेष्ठ मानना हमारा अहँकार होता है

वास्तव मेँ
इस समस्त ब्रम्हाण्ड को रचने वाले सर्वब्यापी
परमात्मा की बुद्धि , शक्ति और सामर्थ्य
हमारी कल्पनाओँ से भी परे है
जिनके सम्मुख हमारी बुद्धि ,
हमारा ज्ञान, हमारा सामर्थ्य धूलि के शूछ्म
कण के समान भी नही है।
जब हमारी बुद्धि और ज्ञान मेँ ये बात
भलीभाँति बैठ जाऐ
तो
समझिए हमारा हृदय "पूर्ण समर्पण" के योग्य
हो गया है।



_/\_
"प्रभु शरणागति अर्थात समर्पण का अर्थ है -
अपने समस्त ज्ञान ,बुद्धि ,सामर्थ्य और उससे
जुड़ी समस्त कामनाओँ को परमात्मा के श्री
चरणोँ मेँ अर्पण कर देना"
परन्तु
एसा होता नही है
क्योँ कि
यदि हम समर्पण की प्रार्थना करतेँ भी है
तो
मायावश उसमेँ अपनी "कामना" रूपी बुद्धि का
अहँकार भी जोड़ देतेँ है।

जैसे कि - प्रभु कृपा से हमारी दुखद
परिस्थितियाँ बदल जाऐगी,

धन,बल अथवा सिद्धियाँ मिल जाऐँगी।

मुझे लोग सिद्ध महात्मा के रूप मेँ जानने लगेँ
,मेरा मान-सम्मान करेँ।

मुझे अथाह सिद्धियाँ प्राप्त हो जाऐगी आदि-
इत्यादि।

इसलिए हमेँ इस परम सत्य पर भी ध्यान देना
होगा कि -

*हमारी बुद्धि और ज्ञान पर माया का आवरण
चढ़ा हुआ है जिसके कारण हम उचित-अनुचित
,आवश्यक-अनावश्यक का भेद समझने मेँ पूर्णतया
अछम है।*

*माया से प्रभावित बुद्धि से हम वही कामना
करतेँ है जो हमेँ सर्वश्रेष्ठ लगता है
परन्तु
हमारे लिए क्या श्रेष्ठ और आवश्यक है ये प्रभु
जी से बेहतर भला और कौन जान सकता है।*


_/\_
"पूर्ण समर्पण" कोई यम-नियम युक्त पूजा-
साधना नही
बल्कि
परमात्मा के प्रति हृदयगत प्रेम,श्रद्धा और
पूर्ण विश्वास भाव है।


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मेरे प्यारे भाइयो बहनो
ये मेरे पूर्ण समर्पण का ही परिणाम था जो
प्रभु जी ने अपनी अनन्य कृपाओँ से "जन-सेवा"
हेतु मेरे जीवन को समर्पण की प्रेरणाओँ से भर
दिया।


_/\_
"पूर्ण समर्पण" के उदाहरण स्वरूप जब मेरा मन
सँगीता से विवाह की कामना लिए अत्यन्त
ब्याकुल और अधीर हो गया

तो सोचा - "चलो जगदीश्वर से ही माँग लूँ"
परन्तु
मन्दिर पहुँचते ही बचपन मेँ किसी महात्मा के
सत्सँग की प्रेरणा से माँ के द्वारा कराया गया
वो समर्पण याद आ गया


जिसे पुनः दोहरा दिया - "हे भगवान अब इस
जीवन नैइया की पतवार आपको सौँपता हूँ इसे
अब आप ही सँभालिए।"


जब विवाह की कामना प्रकट करने का समय
आया तो

सँगीता के सुखी जीवन हेतु मेरे हृदय मेँ त्याग की
भावना प्रकट हो गई।

अब मुझे मेरा जीवन लछ्य रहित विहीन दिखाई
देने लगा

क्योँ कि सँगीता के अतिरिक्त किसी और से
विवाह ना करने का सँकल्प वषोँ पहले ही ले
चुका था।


अब सोचा - क्योँ ना प्रभु जी से माँग लूँ कि -
"मेरी जिन्दगी दूसरोँ की सेवा मेँ बीत जाऐ"

परन्तु

अन्तरात्मा ने सलाह दी कि - "शिवप्रसाद"
"तुम तन ,मन और धन से दूसरोँ की सेवा को ही
सर्वोपरि मानते हो
परन्तु हो सकता है इससे भी बढ़ कर जीवन का
कोई सेवा मार्ग हो"


अब क्योँ कि मुझे प्रभु जी की शक्ति-सामर्थ्य
और ज्ञान पर अटूट विश्वास था
अतः मैने "जगदीश्वर" को ही अपना "गुरू" भी
मानते हुए "जीवन के सर्वश्रेष्ठ सेवार्थ मार्ग"
पर चलाने की प्रार्थना कर के मन्दिर से लौट
आया।


प्रभु दीनदयालु ने अपनी अनुपम लीलाओँ के
माध्यम से
"शरणागति भाव" भाव बाँटने की ना केवल
प्रेरणाऐँ दी

बल्कि मैँ ऐसा करते हुए कर्ताभाव के अहँकार मेँ
ना डूब जाऊँ
इसके लिए "जगदगुरू" जी ने मुझसे मेरा
"मैँ"(अहँकार) छीनते हुए
मुझे "निःस्वार्थ सेवा भाव से जीने का सँकल्प
भी करा लिया।"


_/\_
मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ मेरे इसी "पूर्ण
समर्पण" के फलस्वरूप ही
प्रभु जी ने अपनी "शरणागत वत्सलता" का
परिचय देते हुए
मुझे सँसार मे ब्याप्त माया का दर्शन कराते हुए
मानवीय विवश्ताओँ का दर्शन कराया।

जिसके फलस्वरूप ही मेरे हृदय मेँ सबके प्रति
निर्मल(स्वार्थरहित) प्रेम , दया और
छमाशीलता की भावना जागृति हुई।
प्रभु जी ने अपनी सर्वब्यापकता का भी दर्शन
कराया।

निराकार और साकार का भेद मिटाया।
निराकार प्रभु जी को साकार रूप मेँ देखने की
कामना प्रबल हुई तो

प्रभु जी ने स्वप्न मेँ अपने गगन समान नीलवर्ण
चतुर्भुज रूप का भी स्वप्न मेँ दर्शन कराया।

सुख-दुख आदि माया से मुक्त कर शाश्वत शान्ति
प्रदान किया

जिसके परिणाम स्वरूप मुझे अपने कठिनतम धर्मोँ
(कर्तब्योँ) मेँ कोई दुर्गम बाधा भी विचलित
नही कर पाती है।

जिस समय मैँ स्वयँ को जानने-पहचानने के लिए
ब्याकुल था

प्रभु जी ने अपने अनमोल वचनोँ "श्री भागवत
गीता" से रूबरू कराया

जिसके पश्चात ही मै स्वयँ को और प्रभु लीलाओँ
तथा भगवद स्वरूपोँ को समझ पाया।

प्रभु जी ने अपनी समस्त लीलाओँ कृपाओँ से यही
दर्शाया कि - "इस भौतिक नाश्वान जगत मेँ
तन ,मन और धन के द्वारा की गई सेवा से कहीँ
अधिक श्रेष्ठ है

निष्काम भाव से "समर्पण" की प्रेरणा का
दान करना।

क्योँ कि

प्रभु जी के प्रति "पूर्ण समर्पण" भाव ही हमे
हमारे जीवन के "मूल धन" शान्ति ,मोछ और
भक्ति को सहज-शुलभ कर सकता है।


_/\_
मेरे प्यारे प्रभु भक्तो
प्रभु जी की लीलाओँ-कृपाओँ का कितना भी
वर्णन करूँ कम है

मैँ जिस देवी सँगीता से विवाह की कामना लिए
मन्दिर गया था परन्तु जिसे माँग न सका था
जो मुझसे कहीँ अधिक सुन्दर ,सुशील , धर्मशील
और मेरे लिए वरदान तुल्य थी

उस सँगीता से विवाह के रिश्ते को "जन-सेवार्थ
सँकल्प" के कारण ठुकराने के पश्चात भी
प्रभु जी ने मेरा विवाह सँगीता से ही कराया।



साँसारिक दुखःद-विषम परिस्थितियाँ मुझे
वर्षोँ से रूला नही पाईँ
परन्तु
भगवद प्रेम-आनन्द से रोना शायद ही कोई
दिन खाली जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण सत्य ये है कि प्रभु जी
सर्वब्यापी ,घट-घट वासी ,असीम समर्थवान हैँ
परन्तु
हम अपने ज्ञान के अहँकार वश इन्हे सीमित समझ
लेतेँ है।


_/\_
प्रिय भक्तोँ अब आप स्वयँ ही विचार कीजिए -
"यदि मैँ अपनी माया से पोषित बुद्धि से केवल
सँगीता का हाथ माँग लेता
तो
क्या प्रभु कृपाओँ का पात्र बन पाता?
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सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे दोस्तों।

"प्रभु जी आप सभी को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करें"

।जय जय श्री राधेकृष्णा।






🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏




                  🙏 भगवत प्रसाद🙏

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"

शंका ना करना दोस्तों
 ऐसा करने वाले लोगों ने बाद में स्वयं भी मन की शांति मिलने का दावा किया है ।



क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
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।।जय श्री हरि।।

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🙏 धन्यवाद जी।
आपके कमेंट हमारे लिए प्रेरणा है।