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प्रेम,शांति, आनंद,मोक्ष और भगवत कृपा प्रदायिनी अनुभव और अनन्त भावपूर्ण प्रेरणाएं

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Monday, March 30, 2020

1:28 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.24

श्री भागवत गीता

भाग.24



                             
🙏🏻 परमात्मा से प्रार्थना इतने गहरे भाव से करें कि आँसू आ जाएँ, किसी प्रकार की कोई आकांक्षा या मांग न रखें, क्योंकि परमात्मा से मांगना नहीं पड़ता, उनकी शरण में जाने से ही सब मिल जाता है। वास्तव में प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है, चाहे वो एक घंटे की हो या एक मिनट की .....यदि सच्चे मन से की जाये तो ईश्वर अवश्य सहायता करते हैं...."अक्सर लोगों के पास ये बहाना होता है की हमारे पास वक्त नहीं".......मगर सच तो ये है कि ईश्वर को याद करने का कोई समय नहीं होता प्रार्थना के द्वारा मन के विकार दूर होते हैं, एक सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और जीवन की कठिनाइयों का सामना करने का बल मिलता है ||
   
प्रार्थना करते समय मन को ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध व घृणा जैसे विकारों से मुक्त रखें. प्रातः काल दैनिक प्रार्थना को जीवन का एक अनिवार्य अंग अवश्य बनाना चाहिए.....इससे न केवल शक्ति मिलेगी बल्कि बुराई या अकर्म के प्रति आसक्ति भी कम होगी..         
 🙏हे कान्हा, पग पग है तेरा आसरा, हर पग पर है तेरा साथ
❤ पग पग पे है तू रक्षा करता, पकड के मेरा हाथ❤
🙏 हरि हरि बोल 🙏 श्री कृष्ण: शरणम् मम: 🙏

कृष्ण भक्ति ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया...
मेरी मायूस और ख़ामोश दुनिया को हंसा दिया।
कर्ज़दार हूं हे नाथ ! मैं अपने "कृष्ण" का जिसने
मुझे आप जैसे परम "कृष्ण" भक्तो" से मिला दिया.....।।
❤ श्री राधे राधे🌺 जय श्री राधेश्याम ❤

Friday, March 27, 2020

11:07 PM

पूर्ण समर्पण ,भाग.3

पूर्ण समर्पण

भाग. 3


_/\_
अपने अर्जित समस्त ज्ञान ,बल और बुद्धि को
ही सर्वश्रेष्ठ मानना हमारा अहँकार होता है

वास्तव मेँ
इस समस्त ब्रम्हाण्ड को रचने वाले सर्वब्यापी
परमात्मा की बुद्धि , शक्ति और सामर्थ्य
हमारी कल्पनाओँ से भी परे है
जिनके सम्मुख हमारी बुद्धि ,
हमारा ज्ञान, हमारा सामर्थ्य धूलि के शूछ्म
कण के समान भी नही है।
जब हमारी बुद्धि और ज्ञान मेँ ये बात
भलीभाँति बैठ जाऐ
तो
समझिए हमारा हृदय "पूर्ण समर्पण" के योग्य
हो गया है।



_/\_
"प्रभु शरणागति अर्थात समर्पण का अर्थ है -
अपने समस्त ज्ञान ,बुद्धि ,सामर्थ्य और उससे
जुड़ी समस्त कामनाओँ को परमात्मा के श्री
चरणोँ मेँ अर्पण कर देना"
परन्तु
एसा होता नही है
क्योँ कि
यदि हम समर्पण की प्रार्थना करतेँ भी है
तो
मायावश उसमेँ अपनी "कामना" रूपी बुद्धि का
अहँकार भी जोड़ देतेँ है।

जैसे कि - प्रभु कृपा से हमारी दुखद
परिस्थितियाँ बदल जाऐगी,

धन,बल अथवा सिद्धियाँ मिल जाऐँगी।

मुझे लोग सिद्ध महात्मा के रूप मेँ जानने लगेँ
,मेरा मान-सम्मान करेँ।

मुझे अथाह सिद्धियाँ प्राप्त हो जाऐगी आदि-
इत्यादि।

इसलिए हमेँ इस परम सत्य पर भी ध्यान देना
होगा कि -

*हमारी बुद्धि और ज्ञान पर माया का आवरण
चढ़ा हुआ है जिसके कारण हम उचित-अनुचित
,आवश्यक-अनावश्यक का भेद समझने मेँ पूर्णतया
अछम है।*

*माया से प्रभावित बुद्धि से हम वही कामना
करतेँ है जो हमेँ सर्वश्रेष्ठ लगता है
परन्तु
हमारे लिए क्या श्रेष्ठ और आवश्यक है ये प्रभु
जी से बेहतर भला और कौन जान सकता है।*


_/\_
"पूर्ण समर्पण" कोई यम-नियम युक्त पूजा-
साधना नही
बल्कि
परमात्मा के प्रति हृदयगत प्रेम,श्रद्धा और
पूर्ण विश्वास भाव है।


_/\_
मेरे प्यारे भाइयो बहनो
ये मेरे पूर्ण समर्पण का ही परिणाम था जो
प्रभु जी ने अपनी अनन्य कृपाओँ से "जन-सेवा"
हेतु मेरे जीवन को समर्पण की प्रेरणाओँ से भर
दिया।


_/\_
"पूर्ण समर्पण" के उदाहरण स्वरूप जब मेरा मन
सँगीता से विवाह की कामना लिए अत्यन्त
ब्याकुल और अधीर हो गया

तो सोचा - "चलो जगदीश्वर से ही माँग लूँ"
परन्तु
मन्दिर पहुँचते ही बचपन मेँ किसी महात्मा के
सत्सँग की प्रेरणा से माँ के द्वारा कराया गया
वो समर्पण याद आ गया


जिसे पुनः दोहरा दिया - "हे भगवान अब इस
जीवन नैइया की पतवार आपको सौँपता हूँ इसे
अब आप ही सँभालिए।"


जब विवाह की कामना प्रकट करने का समय
आया तो

सँगीता के सुखी जीवन हेतु मेरे हृदय मेँ त्याग की
भावना प्रकट हो गई।

अब मुझे मेरा जीवन लछ्य रहित विहीन दिखाई
देने लगा

क्योँ कि सँगीता के अतिरिक्त किसी और से
विवाह ना करने का सँकल्प वषोँ पहले ही ले
चुका था।


अब सोचा - क्योँ ना प्रभु जी से माँग लूँ कि -
"मेरी जिन्दगी दूसरोँ की सेवा मेँ बीत जाऐ"

परन्तु

अन्तरात्मा ने सलाह दी कि - "शिवप्रसाद"
"तुम तन ,मन और धन से दूसरोँ की सेवा को ही
सर्वोपरि मानते हो
परन्तु हो सकता है इससे भी बढ़ कर जीवन का
कोई सेवा मार्ग हो"


अब क्योँ कि मुझे प्रभु जी की शक्ति-सामर्थ्य
और ज्ञान पर अटूट विश्वास था
अतः मैने "जगदीश्वर" को ही अपना "गुरू" भी
मानते हुए "जीवन के सर्वश्रेष्ठ सेवार्थ मार्ग"
पर चलाने की प्रार्थना कर के मन्दिर से लौट
आया।


प्रभु दीनदयालु ने अपनी अनुपम लीलाओँ के
माध्यम से
"शरणागति भाव" भाव बाँटने की ना केवल
प्रेरणाऐँ दी

बल्कि मैँ ऐसा करते हुए कर्ताभाव के अहँकार मेँ
ना डूब जाऊँ
इसके लिए "जगदगुरू" जी ने मुझसे मेरा
"मैँ"(अहँकार) छीनते हुए
मुझे "निःस्वार्थ सेवा भाव से जीने का सँकल्प
भी करा लिया।"


_/\_
मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ मेरे इसी "पूर्ण
समर्पण" के फलस्वरूप ही
प्रभु जी ने अपनी "शरणागत वत्सलता" का
परिचय देते हुए
मुझे सँसार मे ब्याप्त माया का दर्शन कराते हुए
मानवीय विवश्ताओँ का दर्शन कराया।

जिसके फलस्वरूप ही मेरे हृदय मेँ सबके प्रति
निर्मल(स्वार्थरहित) प्रेम , दया और
छमाशीलता की भावना जागृति हुई।
प्रभु जी ने अपनी सर्वब्यापकता का भी दर्शन
कराया।

निराकार और साकार का भेद मिटाया।
निराकार प्रभु जी को साकार रूप मेँ देखने की
कामना प्रबल हुई तो

प्रभु जी ने स्वप्न मेँ अपने गगन समान नीलवर्ण
चतुर्भुज रूप का भी स्वप्न मेँ दर्शन कराया।

सुख-दुख आदि माया से मुक्त कर शाश्वत शान्ति
प्रदान किया

जिसके परिणाम स्वरूप मुझे अपने कठिनतम धर्मोँ
(कर्तब्योँ) मेँ कोई दुर्गम बाधा भी विचलित
नही कर पाती है।

जिस समय मैँ स्वयँ को जानने-पहचानने के लिए
ब्याकुल था

प्रभु जी ने अपने अनमोल वचनोँ "श्री भागवत
गीता" से रूबरू कराया

जिसके पश्चात ही मै स्वयँ को और प्रभु लीलाओँ
तथा भगवद स्वरूपोँ को समझ पाया।

प्रभु जी ने अपनी समस्त लीलाओँ कृपाओँ से यही
दर्शाया कि - "इस भौतिक नाश्वान जगत मेँ
तन ,मन और धन के द्वारा की गई सेवा से कहीँ
अधिक श्रेष्ठ है

निष्काम भाव से "समर्पण" की प्रेरणा का
दान करना।

क्योँ कि

प्रभु जी के प्रति "पूर्ण समर्पण" भाव ही हमे
हमारे जीवन के "मूल धन" शान्ति ,मोछ और
भक्ति को सहज-शुलभ कर सकता है।


_/\_
मेरे प्यारे प्रभु भक्तो
प्रभु जी की लीलाओँ-कृपाओँ का कितना भी
वर्णन करूँ कम है

मैँ जिस देवी सँगीता से विवाह की कामना लिए
मन्दिर गया था परन्तु जिसे माँग न सका था
जो मुझसे कहीँ अधिक सुन्दर ,सुशील , धर्मशील
और मेरे लिए वरदान तुल्य थी

उस सँगीता से विवाह के रिश्ते को "जन-सेवार्थ
सँकल्प" के कारण ठुकराने के पश्चात भी
प्रभु जी ने मेरा विवाह सँगीता से ही कराया।



साँसारिक दुखःद-विषम परिस्थितियाँ मुझे
वर्षोँ से रूला नही पाईँ
परन्तु
भगवद प्रेम-आनन्द से रोना शायद ही कोई
दिन खाली जाता है।
सबसे महत्वपूर्ण सत्य ये है कि प्रभु जी
सर्वब्यापी ,घट-घट वासी ,असीम समर्थवान हैँ
परन्तु
हम अपने ज्ञान के अहँकार वश इन्हे सीमित समझ
लेतेँ है।


_/\_
प्रिय भक्तोँ अब आप स्वयँ ही विचार कीजिए -
"यदि मैँ अपनी माया से पोषित बुद्धि से केवल
सँगीता का हाथ माँग लेता
तो
क्या प्रभु कृपाओँ का पात्र बन पाता?
_/\_
सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे दोस्तों।

"प्रभु जी आप सभी को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करें"

।जय जय श्री राधेकृष्णा।






🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏




                  🙏 भगवत प्रसाद🙏

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"

शंका ना करना दोस्तों
 ऐसा करने वाले लोगों ने बाद में स्वयं भी मन की शांति मिलने का दावा किया है ।



क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Wednesday, March 25, 2020

7:57 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.23

भागवत गीता 
भाग .23



🙏
मेरे प्यारे दोस्तों कोरोना से डरने की आवश्यकता नहीं है अभी भी वक्त है 

आज ही एक अंजलि जल लेकर समर्पण का संकल्प कर ले,

क्यों कि

हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है

उसमें होनी और अनहोनी दोनों ही शामिल होता है


 *होनी*--वह होती है जो हमारे पूर्वजन्मो के कर्मों के फल स्वरुप पहले ही निर्धारित होती हैं।

और

*अनहोनी*-- वह होती है जो अकस्मात घटित होती है



इसी सत्य का अनुभव करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने भी कहा है---



"तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोए,

 अनहोनी ना होय कभी होनी हो सो होय।



🙏

हे मेरे प्यारे दोस्तों इस इस समय मेरी स्वयं की आंखें भी लिखते हुए प्रभु जी की उन लीलाओं-कृपाओं का का स्मरण आते ही भगवत प्रेम से भाव विभोर होकर नम हो गई।



क्योंकि अब तक के जीवन में मेरे प्रभु जी ने मुझे उसी प्रकार संभाला और संवारा जैसे एक माता अपने शिशु को संभालती, संवारती, और सुरछा करती है।



मेरा विश्वास कीजिए मैं पिछले 20 वर्षों से इसी विषय पर ही शोध करता रहा हूं



चाहे हिंदू हो मुस्लिम हो अथवा किसी अन्य पंथ का हो सब पर यह समर्पण भाव प्रभावी होते देखा हैं
 बशर्ते---


"हमारे समर्पण की प्रार्थना का भाव निष्पक्ष हो"



🙏
जय जय श्री राधेकृष्णा मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ ।

"प्रभु शरण परम हितकारी"


"हे प्रभु" आपकी इस माया सँसार मेँ मेरा मन सदैव विषय-विकारोँ मेँ ही डूबा रहता है 
 दुर्भावनाओँ की प्रबलता सदैव पापाचरण को विवश करतीँ है  
अतः "हे दीनदयालु ","हे जगतश्रेष्ठ" मैँ अपना सबकुछ हार कर आपकी शरण आया हूँ नाथ ।
 मुझ अधर्मी ,पाप के भागी को अब आपका ही आसरा है 

"हे कृपासिन्धु" मेरे इस तुच्छ समर्पण को स्वीकार कर अपनी माया से अभयता दीजिए ।

"दीनबन्धु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ ।"

_/\_
उद्धार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ,
भव पार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ।
पन्थ मतो की सुन-सुन बातेँ ,
 द्वार तेरे तक पहुँच ना पातेँ ।
भटके बीच जहाँन तुम्हरी शरण पड़े ।
तू ही श्यामल कृष्ण मुरारी ,
राम तू ही गणपति त्रिपुरारी ।
तुम ही बने हनुमान तुम्हरी शरण पड़े ।
उद्धार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ।


"प्रभु शरण अपनाऐँ ,
प्रेम,शान्ति,मुक्ति सहज पाऐँ ।"

🙏

सभी भाई बहनों से रिक्वेस्ट है कि पोस्ट को शेयर और कमेंट अवश्य करें

जिससे हमें इस ज्ञान यज्ञ में अधिक से अधिक योगदान देने की प्रेरणा मिलेगी।

🙏
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।



Sunday, March 22, 2020

8:25 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.22

भागवत गीता

भाग.22


मेरे प्यारे दोस्तों कोरोना से डरने की आवश्यकता नहीं है अभी भी वक्त है

आज ही एक अंजलि जल लेकर समर्पण का संकल्प कर ले,

क्यों कि





हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है

उसमें होनी और अनहोनी दोनों ही शामिल होता है



 *होनी*--वह होती है जो हमारे पूर्वजन्मो के कर्मों के फल स्वरुप पहले ही निर्धारित होती हैं।

और

*अनहोनी*-- वह होती है जो अकस्मात घटित होती है



इसी सत्य का अनुभव करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने भी कहा है---



"तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोए,

 अनहोनी ना होय कभी होनी हो सो होय।



🙏

हे मेरे प्यारे दोस्तों इस इस समय मेरी स्वयं की आंखें भी लिखते हुए प्रभु जी की उन लीलाओं-कृपाओं का का स्मरण आते ही भगवत प्रेम से भाव विभोर होकर नम हो गई।



क्योंकि अब तक के जीवन में मेरे प्रभु जी ने मुझे उसी प्रकार संभाला और संवारा जैसे एक माता अपने शिशु को संभालती, संवारती, और सुरछा करती है।



मेरा विश्वास कीजिए मैं पिछले 20 वर्षों से इसी विषय पर ही शोध करता रहा हूं



चाहे हिंदू हो मुस्लिम हो अथवा किसी अन्य पंथ का हो सब पर यह समर्पण भाव प्रभावी होता हैं बशर्ते---

"हमारे समर्पण का भाव पूरी तरह निष्पक्ष हो"





_/\_
जय जय श्री राधेकृष्णा मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ ।

"प्रभु शरण परम हितकारी"

"हे प्रभु" आपकी इस माया सँसार मेँ मेरा मन सदैव विषय-विकारोँ मेँ ही डूबा रहता है
 दुर्भावनाओँ की प्रबलता सदैव पापाचरण को विवश करतीँ है 
अतः "हे दीनदयालु ","हे जगतश्रेष्ठ" मैँ अपना सबकुछ हार कर आपकी शरण आया हूँ नाथ ।
 मुझ अधर्मी ,पाप के भागी को अब आपका ही आसरा है

"हे कृपासिन्धु" मेरे इस तुच्छ समर्पण को स्वीकार कर अपनी माया से अभयता दीजिए ।

"दीनबन्धु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ ।"

_/\_
उद्धार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ,
भव पार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ।
पन्थ मतो की सुन-सुन बातेँ ,
 द्वार तेरे तक पहुँच ना पातेँ ।
भटके बीच जहाँन तुम्हरी शरण पड़े ।
तू ही श्यामल कृष्ण मुरारी ,
राम तू ही गणपति त्रिपुरारी ।
तुम ही बने हनुमान तुम्हरी शरण पड़े ।
उद्धार करो भगवान तुम्हरी शरण पड़े ।


"प्रभु शरण अपनाऐँ ,
प्रेम,शान्ति,मुक्ति सहज पाऐँ ।"

_/\_
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।



5:57 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.21

भागवत गीता
भाग.21
मेरे प्यारे दोस्तों कोरोना से डरने की आवश्यकता नहीं है अभी भी वक्त है
आज ही एक अंजलि जल लेकर समर्पण का संकल्प कर ले,
क्यों कि

हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है
उसमें होनी और अनहोनी दोनों ही शामिल होता है

 *होनी*--वह होती है जो हमारे पूर्वजन्मो के कर्मों के फल स्वरुप पहले ही निर्धारित होती हैं।
और
*अनहोनी*-- वह होती है जो अकस्मात घटित होती है

इसी सत्य का अनुभव करते हुए गोस्वामी श्री तुलसीदास जी ने भी कहा है---

"तुलसी भरोसे राम के निर्भय होकर सोए,
 अनहोनी ना होय कभी होनी हो सो होय।

🙏
हे मेरे प्यारे दोस्तों इस इस समय मेरी स्वयं की आंखें भी लिखते हुए प्रभु जी की उन लीलाओं-कृपाओं का का स्मरण आते ही भगवत प्रेम से भाव विभोर होकर नम हो गई।

क्योंकि अब तक के जीवन में मेरे प्रभु जी ने मुझे उसी प्रकार संभाला और संवारा जैसे एक माता अपने शिशु को संभालती, संवारती, और सुरछा करती है।

मेरा विश्वास कीजिए मैं पिछले 20 वर्षों से इसी विषय पर ही शोध करता रहा हूं

चाहे हिंदू हो मुस्लिम हो अथवा किसी अन्य पंथ का हो सब पर यह समर्पण भाव प्रभावी होता हैं बशर्ते---
"हमारे समर्पण का भाव पूरी तरह निष्पक्ष हो"





🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏









सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।

आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Friday, March 20, 2020

7:31 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.20

भागवत गीता
भाग.20

मन की शान्ति पाने का सबसे सरलतम उपाय

 🙏

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।

आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Thursday, March 19, 2020

7:30 PM

पूर्ण समर्पण भाग.2

ॐ।श्री कृष्णा शरणं ममः।ॐ
"पूर्ण समर्पण" और "निष्काम भक्ति"
भाग.2

_/\_
एक बार एक पण्डित जी बुलावे पर मेरे घर मेरे
बड़े भैया जी को देखने आए ।

भैया जी को ऊपरी चक्कर की समस्या थी
मानसिक स्थिति असन्तुलित होने के कारण घर
के हालात ठीक नही थी ।

पण्डित जी पड़ोस मेँ रहते थे जो कि निःशुल्क
झाड़फूक करते थे

इस कारण मेरा हृदय उनसे प्रभावित था
मुझमेँ एक बुरी आदत है कि जब मैँ किसी विशिष्ट
ब्यक्ति से मिलता हूँ
तो
उन्हे प्रभु प्रसाद रूपी अनुभवोँ के माध्यम से
"प्रभु शरणागति" भाव अपनाने और अन्य लोगोँ
मेँ बाँटने के लिए प्रेरित करता हूँ


अपनी इस क्रिया को मैँ अपने जीवन का मूल
धर्म अर्थात कर्तब्य मानता हूँ ।
क्योँ कि
अब तक के मेरे समस्त प्रभु प्रदत्त अनुभव इसी
कर्म को जीवन का सर्वश्रेष्ठ कर्म सिद्ध करतेँ
हैँ ।


जब पण्डित जी अपनी क्रिया सम्पादित कर
चाय पी रहे थे
तब मैने उनकी अनुमति ले कर प्रभु शरणागति
भावना की विशिष्टता पर बात शुरु की ।

परन्तु मेरी प्रेरणाओँ का पण्डित जी पर
विरीत प्रभाव पड़ा ।

अचानक बोल उठे - "तुम्हे अपने ज्ञान का
अहँकार है"

ये सुन कर मैँ अन्दर तक काँप गया और अपने मन
को टटोलने लगा
परन्तु ऐसा कोई अहँकारी तत्व नही मिला
ये बोध जरूर हुआ कि मैने बात की शुरूआत ही
गलत की थी ।

इतने मेँ पण्डित जी फिर बोले - "मैँ देख रहा हूँ
तेरे ऊपर बहुत दुख हैँ । तू इनकी (श्री भगवान
की फोटो दिखाते हुए) पूजा करता है तू इनसे
माँग ।"

मैने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया - "जब
इनकी कृपा-करूणा से सुख और दुख की मनोवृत्ति
से ही निजात मिल गई है
तो फिर इन दुःखद परिस्थितियोँ से कैसा भय
और किस लिए माँगूँ ।

इतना कहते-कहते मैँ प्रभु प्रेम मे भावुक हो उठा
था
क्योँ कि उनकी लीलाऐँ-कृपाऐँ मानसिक पटल
पर तैरने लगीँ थी ।


अब पण्डित जी अपनी बात पर जोर देते हुए
फिर बोले - "अरे तू इनकी पूजा करता है ,माँगने
का अधिकार है तुझे , तू माँग इनसे ।"


पण्डित जी की बात सुनते ही मेरी भावना का
बाँध टूट पड़ा ,मेरी आँखेँ सजल हो उठी ।
भावुक कण्ठ से मैने कहा - "प्रभु प्रेम मे थोड़ा
सा जल और धूपबत्ती क्या चढ़ा देता हूँ तो क्या
अब अपने प्रेम की कीमत माँगूँ ।"

"नही पण्डित जी मेरे प्राण भी चले जाऐँगे तो
भी ये सम्भव नही है ।"
और

अचानक मैँ अपनी जगह से उठा और पण्डित जी
का पैर पकड़ते हुए कहा - "मान लीजिए आप मेरे
पिता हैँ और दैवीय गुणोँ से सम्पन्न मन की बात
भी जानने वाले है । मेरे लिए क्या अच्छा और
क्या बुरा इसकी पहचान आपको भलीभाँति है
और मैँ अज्ञानी आपसे पैर पकड़ कर कहूँ कि "हे
पिता जी" मेरे जीवन का समस्त भार आपकी
इच्छा पर निर्भर है
आप मुझे जिसके योग्य समझेँ वही प्रदान करेँ ।
तो
ऐसे मेँ आप क्या करेँगे ??
और
ऐसे मेँ यदि आपके द्वारा प्रदान किए गये
अवस्थाओँ ,ब्यवस्थाओँ के प्रति असन्तुष्ट हो मैँ
अपने मतानुसार आपसे माँग करू तो मेरा आपके
प्रति पूर्ण विश्वास और समर्पण कहाँ रहा ।

इसी प्रकार जब मैने सर्वब्यापी ,जगतश्रेष्ठ
,समस्त सृष्टि आधार को ही अपने जीवन का
समस्त भार सौँप दिया है
तो
फिर मुझे अपने मानसिकता के अनुरूप माँगने का
अधिकार ही कहाँ रहा ।
और
यदि माँगता हूँ तो अपने "प्रभु की प्रभुता" पर
विश्वास ही कहाँ रहा ।
जब कि प्रभु जी पूर्ण श्रद्धा और विश्वास से
ही प्राप्य हैँ ।


जाते-जाते पण्डित जी कहने लगे - "मेरी बातोँ
को समझो ये मैँ नही कह रहा हूँ " मैँ तुम्हे एक
सप्ताह का समय दे रहा हूँ ,मेरी बात समझ आऐ
तो मेरे पास आ जाना।"
मैँ समझ गया था पण्डित जी का इशारा अपने
ऊपर सिद्ध किये गये देवता की ओर है ।

परन्तु

मैँ करता भी क्या प्रभु जी के द्वारा बनाया
गया ये घड़ा शायद बहुत ठोस था जो मृत्युसम
परिस्थितियोँ को सहजता से सहन कर गया ।



_/\_
मेरे प्यारे भाइयोँ ,बहनोँ  "पूर्ण समर्पण" अपने प्रभु की प्रभुता पर "पूर्ण विश्वास" और "निःस्वार्थ प्रेम" का प्रतीक होता है ।

जिस भक्त मेँ ये दोनोँ भाव हो तो प्रभु जी
अपने ऐसे भक्त का कल्याण कर परम शान्ति और
मोछ प्रदान करतेँ हैँ ।

क्योंकि ऐसे भक्तों को अपने प्रभु की न्याय प्रणाली पर पूर्ण विश्वास होता है।


जब किसी भक्त पर प्रभु जी की विशेष कृपा
होती है तो
प्रभु जी उसे अपनी शान्ति और मोछप्रदायिनी
निष्काम भक्ति और निष्काम कर्म की भावना
प्रदान कर देतेँ है

जिसके फलस्वरूप ऐसा भक्त अपने प्रारब्ध
(भाग्य) को शान्ति पूर्वक भोगते हुए नवीनतम
प्रारब्ध चक्र से मुक्त रहता है ।
और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्ति पाता है ।



_/\_
हे मेरे प्यारे दोस्तों
 मेरे समस्त प्रेरणात्मक पोस्ट उस
निश्छल भाव से किये गये "समर्पण" और "जीवन
के सर्वश्रेष्ठ मार्ग पर चलाने की प्रार्थना"
के फलस्वरूप ही है ।

मान ,सम्मान अथवा लाइक की तृष्णा से रहित
केवल आपके जीवन को शान्तिमयी और सार्थक
करने हेतु ही नौकरी से बचा समय सोशल मीडिया पर
देता हूँ।


यदि आपका हृदय एक बार भी पूर्ण विश्वास और
श्रद्धा से भाव-विभोर हो पुकार उठे - "हे
दीनदयाल" "हे समस्त सृष्टि के स्वामी" "हे
जगतपिता" मुझ मूर्ख ,अज्ञानी ,पाप के भागी
को भी अपनी शरणागति दीजै ।
तो
यकीन मानिए प्रभु जी ने अपनी "भगवद
वाणी" मेँ जो विशेष सँदेश दिया है

वो केवल सँदेश नही एक महान कृपा रूपी अवसर
है शान्ति और मोछ प्राप्ति का -
Bhagwat-gita-peace-of-Mind


"सर्वधर्मान
परित्यज्यै ,
मामेकं शरणं ब्रिज ।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।"
अतः
"प्रभु शरणागत बनेँ-बनाऐँ ,
अपना व अपनोँ का जीवन सफल बनाऐँ ।"
प्रभु जी आपको अपनी निर्मल भक्ति प्रदान
करेँ ।
_/\_
सभी आदरणीय व प्रिय मित्रोँ को सहृदय
प्रणाम् ।
जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की ।।





🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏







सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।


"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"


क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है

अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं


भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -


1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।



2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"


शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।


इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।


☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆


साथ ही

ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और
नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

परमात्मा भी निभाते हैं सच्चे गुरु की भूमिका

Wednesday, March 18, 2020

8:38 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.19

भागवत गीता
भाग 19
मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है

मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव और उदाहरण स्वरूप न केवल दुर्लभ आध्यात्मिक स्थितियां प्रदान की
बल्कि
बड़े विचित्र ढंग से जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।

मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है

"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।
🙏
प्रभु जी ने मेरा नवनिर्माण अपने भक्तों की सेवा हेतु किया है
अतः आप मुझे अपना सेवक ही जाने।

आपका अपना एक प्रभु शरणागत सेवक।
।। जय जय श्री सीताराम।।

(प्रभु जी भी निभाते हैं सच्चे गुरु की भूमिका)--
prabhusharanagti.blogspot.com
12:57 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.18

भागवत गीता
भाग.18









सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।

आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Monday, March 16, 2020

6:21 PM

प्रेरणात्मक परिचय

🙏🙏🙏
"परिचय"



मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ मेरा नाम शिवप्रसाद
बर्मा है ।
🙏
इस ब्लाग को बनाने का मूल उद्देश्य है
आप सभी भगवद स्वरूपों के जीवन में शान्ति,मुक्ति, भक्ति, प्रेम और आनन्द जैसी अनन्य भगवद कृपाओं को सहज और शुलभ कराना है
ठीक उसी प्रकार जैसे सर्वब्यापक,अन्तर्यामी, सर्वसमर्थ प्रभु जी ने अनुभवों के माध्यम से मुझे प्रदान किया है।

क्यों कि प्रभु जी ने ही मुझे एक घटना के माध्यम से जनसेवार्थ जीने हेतु संकल्पबद्ध कराया था।
अतः आप मुझे अपना सेवक ही जानें।

अन्यथा मैं एकान्त प्रिय होने के कारण इस तरह के सोशल मीडिया पर ना होता।
क्यों कि
प्रभु जी जिसे अपने शरण में लेतें है
उसका मन सुख-दुख, लाभ-हानि, यश-अपयश, जय-पराजय , मोह-माया आदि मनोविकारों से मुक्त कर परम शांति प्रदान करते हुए
उसे अपने जीवन के समस्त धर्मों (कर्तब्यों) के प्रति सजग और सक्रिय कर देते हैं।


मैं एक अति साधारण गृहस्थ तथा आजीविका के
लिए गाजियबाद के एक कम्पनी मेँ स्प्रे पेँन्टर
की साधारण सी नौकरी करता हूँ ।
फेसबुक आइडी के रूप मेँ तीन आश्रम हैँ मेरे 1.प्रभु
शरणागत भक्त वर्मा ,2.शिवप्रसाद बर्मा ,3. प्रभु
शरणागत भक्त बर्मा।

समर्पण अर्थात शरणागति की प्रेरणाऐँ
बाँटना अपना परम धर्म मानता हूँ ।

केवल एक प्रार्थना ने इस जीवन को प्रभु कृपाओँ
से भर दिया
जिसे जन-सेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण भगवद कृपा-प्रेरणा से
 "प्रभु
प्रसाद" मान कर बाँटता हूँ ।

स्वयँ को आप सभी सरल प्रभु भक्तोँ का सेवक
ही मानता हूँ ।

क्योँ कि प्रभु "लीलाधर" ने एक लीला ऐसी भी
खेली जिसमेँ मुझे अपने प्राण बचाने के लिए इस
जीवन को निःस्वार्थ सेवा मेँ लगाने का सँकल्प
लेना पड़ा ।
_/\_
आपके इस सेवक के जीवन की समस्त "प्रभु
लीलाओँ" का निचोड़ ऐसा ही है जैसे

"कोई भक्त प्रभु जी से एक निश्छल बालक की
भाँति ये प्रार्थना करे कि - "हे मेरे नाथ" मैँ
जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग पर चलना चाहता हूँ
परन्तु मुझे नही पता वो मार्ग कौन सा है
अतः आप ही मुझे जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग पर
चलाने की कृपा करेँ।"

प्रभु जी उस भक्त की सरलता और निष्काम सेवा भाव पर रीझ कर उसे
अपनी माया की प्रबलता और मानवीय विवशताओं से अवगत कराते हुए निःस्वार्थ
सेवा भाव से जनकल्यार्थ हेतु
"शरणागति"(समर्पण) की प्रेरणाऐँ बाँटने की कृपाऐं
प्रदान करते हुए दिखाते हैँ कि -

"तन ,मन और धन से की गई सेवा मात्र कुछ काल
तक के लिए ही सहायक है
परन्तु
यदि तुम्हारी प्रेरणा से कोई श्रद्धालु मेरी
शरणागत हो जाऐ तो मेरी अनन्य कृपाओं सहित उसका जीवन शान्तिमय
तथा जन्म-जन्मान्तर की भटकन से मुक्त होना
निश्चित है ।"


_/\_
"सचमुच" मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ ये अकाट्य
सत्य भी है कि
यदि हमे "सर्वसमर्थ जगतपिता" की शरण मिल
जाऐ तो
हम अपने अच्छे-बुरे प्रारब्ध को भोगते हुए भी सदैव
शान्तिमय , और मुक्त अवस्था मेँ स्थिर तथा
धर्मपरायण(कर्तब्यपरायण) रहतेँ हैँ ।

अतः आप भी "शरणागति भावना" को स्वयँ तक
सीमित ना रख कर अपने मित्रोँ ,बच्चोँ और
स्वजनोँ को भी परमात्मा की शरणागति की प्रेरणा प्रदान करें
जैसा कि
मेरी माता जी ने एक महात्मा जी की सत्सँग
की प्रेरणा से मुझे प्रदान किया था ।
बचपन मे माँ ने एक सत्सँग से प्रेरित हो एक
लोटा जल अर्पण करते हुए समर्पण की
प्रार्थना कराई थी ।(माँ का आदेश था कि एक
लोटा जल कहीँ भी चढ़ाते हुए कहना "हे ईश्वर
अब इस जीवन नैइया की पतवार आपको सौँपता
हूँ इसे अब आप ही सम्भालिए ।"


युवा अवस्था मे कदम रखते ही बड़े ही सरलता
भाव से एक बार फिर मैने जगदीश्वर को ही
माता ,पिता और गुरू मान समर्पण की
प्रार्थना करते हुए जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग
पर चलाने की प्रार्थना कर बैठा ।

शायद प्रार्थना इतनी निश्छल और सरल थी
कि प्रभु जी बड़ी सहजता से रीझ गये

जिसके बाद घट घटवासी प्रभु जी ने अपनी
लीलाओँ की झड़ी लगा दी ।
जिसमेँ एक तरफ काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह
,अहँकार आदि भावनाओँ की भयावहता का
दर्शन करा कर मानवीय विवश्ताओँ का दर्शन
कराने के साथ-साथ सबके प्रति समान प्रेम और
दया का भाव तो जगाया ही
वहीँ
दूसरी तरफ वैराग्य निष्काम कर्म योग
,निश्चल भाक्ति ,प्रेम ,शान्ति आदि प्रदान
कर निःस्वार्थ सेवाभाव से जीवन जीने का
सँकल्प भी कराया ।

प्रभु जी की समस्त लीलाऐँ मेरे लिए अकल्पनीय
और समझ से परे थी ।
ऐसे मे
श्री भगवद गीता का लेख और प्रभु भक्तों की संगति के पश्चात पता
चला कि

प्रभु जी के समछ पूर्ण विश्वास और सरलता
पूर्वक स्वयँ को अपर्ण कर देना कोई साधारण
बात ना थी
यही वो भाव है
जो जगतपिता"श्री भगवान"ने श्री भागवत गीता में भी इसी भाव को सर्वश्रेष्ठ बताया है।
(अधिक जानकारी,प्रेरणा और विश्वनीयता के लिए भागवत गीता का ये वीडियो अवश्य देखिए)

तत्पश्चात जब मैने अपने अब तक के जीवन की
समीछा की तो पाया कि
प्रभु जी को अपने जीवन का भार अर्पण कर देने
से वो कैसे हमेँ भवकूपोँ(दुर्भावनाओँ) से हमारे
चरित्र की रछा करते हुए सदमार्ग पर अग्रसर
करतेँ है
फेसबुक पर केवल यही सोचकर शरणागति भावना
का प्रसार करना आरम्भ किया कि -
"जो भगवद परायण होते है उनका जीवन
भटकाव रहित हो निष्पाप हो जाता है
परन्तु
उस समय तक भी मैँ सत्सँग विहीन प्रभु
लीलाओँ को पूर्णरूप से समझ ना पाया था ।
फेसबुक पर कई ज्ञानी महात्माओँ और मित्रोँ के
ज्ञानमयी और भगवद गीतामयी पोस्टोँ के
माध्यम से मुझे ये ज्ञात हुआ कि -
"प्रभु जी की महिमा अपरम्पार है"
"वो" अपने आश्रितोँ(शरणार्थियोँ)" की ना
केवल दुर्भावनाओँ से रछा करते हैँ
बल्कि वो स्थितियाँ और अवस्थाऐँ भी सहज
प्रदान करतेँ हैँ
जो हमेँ कई जन्मोँ की कठिन साधनाओँ से भी
दुर्लभ है ।

मुझे अच्छी तरह याद है जब मैँ मित्रोँ के
ज्ञानमयी पोस्टोँ को पढ़ते हुऐ प्रभु लीलाओँ
और उसके महत्व को निज जीवन तथा आचरण मेँ
देख परम आनन्द से भाव-विभोर हो मूर्तिवत
बैठा रह जाता और नेत्रोँ से अविरल प्रेमाश्रुओँ
की धारा बहने लगती
हृदय प्रभु प्रेम से सराबोर हो पुकार उठता -

🙏"धन्य हो प्रभु जी आप जो पापी से पापी
मनुष्योँ की भी "शरणागति" सहज स्वीकार कर
परम शान्ति ,प्रेमानन्द और मुक्ति आदि
प्रदान करना अपना धर्म मानते हो।"


🙏
"हे मेरे नाथ" आपके श्री चरणोँ मेँ कोटि-कोटि
प्रणाम् ।


_/\_
"प्रभु शरण परम हितकारी"


"अनमोल प्रार्थनाऐँ"-

🙏
"हे प्रभु" आपकी इस माया सँसार मेँ मेरा मन
सदैव विषय-विकारोँ मेँ ही डूबा रहता है
दुर्भावनाओँ की प्रबलता सदैव पापाचरण को
विवश करतीँ है
अतः "हे दीनदयालु ","हे जगतश्रेष्ठ" मैँ अपना
सबकुछ हार कर आपकी शरण आया हूँ नाथ ।

🙏
मुझ अधर्मी ,पाप के भागी को अब आपका ही
आसरा है
"हे कृपासिन्धु" मेरे इस तुच्छ समर्पण को
स्वीकार कर अपनी माया से अभयता दीजिए ।

🙏
"दीनबन्धु दीनानाथ मेरी डोरी तेरे हाथ ।"

🙏
पन्चतत्व की बनी कोठरिया जिसका नाम है
काया ,
हर एक जीव रहे इस घर मेँ दे कर साँस किराया
भक्ति के रँग मेँ रँग लो रे जीवन यही है मुक्ति
की नाड़ी ,
प्रभु के भरोसे हांको गाड़ी "हरि" के भरोसे
हांको गाड़ी ।


🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


भगवत कृपा प्राप्ति के लिए अनिवार्य और परम आवश्यक ---




सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Sunday, March 15, 2020

7:09 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.17

श्री भागवत गीता
भाग.17

नमस्कार मेरे प्यारे दोस्तों

जय श्री हरि

मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है
मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप न केवल शांति प्रेम और आनंद  प्रदान किया
बल्कि
बड़ी विचित्र ढंग से  जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।

मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है

"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।

मैं आपका अपना प्रभु शरणागत भक्त
आपका एक सेवक।


"प्रभु शरणागति"

शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है ?
मैँ सत्सँग विहीन इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के
मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे
महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है
जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।

प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के
द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से
कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवा अवस्था की
शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।
ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।
परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल
था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को
ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ते हुए जनसेवा की भावना से "जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग" पर चलाने की प्रार्थना कर बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू
छलक आए कि
"प्रभु जी सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते
भी है केवल हमारे हृदयगत समर्पण के भाव सच्चे होने
चाहिए।"
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द
सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता"
का पार्ट देख रहा था
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा
था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को
विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब
मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि
मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ
से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की
झोली फैला रखी है ।

तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना
चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योग
,साधना , पूजा आदि की शिछा दी है सब भूल
जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया
परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे फूट-फूट कर रोने
को विवश कर दिया।)
"सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला
कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता
है ।"....
"सर्व धर्मान परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान
के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर सोशल मीडिया के माध्यम से आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।
"हे जगदीश्वर ,हे दीनदयाल , हे घट घट वासी परमात्मा "
आपके समान कोई ज्ञाता नही ।
आपके समान कोई दाता नही ।
और आपके समान कोई दूजा शरणागत भक्तवत्सल
नही ।
अतः हे प्रभू मैँ अपना तन ,मन ,जीवन आपको
अर्पण करता हूँ अब इसे आप ही सँभालिए और
सार्थक कीजिए ।"
जब हम स्वयँ के अहँकार(बल,बुद्धि,ज्ञान की
श्रेष्ठता की भावना) को त्याग कर एक अबोध
बालक की भाँति अपनी जीवन रूपी नैय्या की
पतवार प्रभु के हाथोँ में सौंप देते हैँ
तो
करुणासागर की असीम कृपा से हमें वो सब
प्राप्त होने लगता है
जो हमारे लिए अनिवार्य और अत्यन्त आवश्यक
होता है ।
हे मेरे प्यारे मित्रों शँसय रहित हो नित "प्रभु
जी" से शरण मेँ लेने की पुकार करो ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।"

मेरे प्यारे दोस्तों परमात्मा की शरणागति के लिए हमारी भावनाओं का विशुद्ध होना परम आवश्यक है
परंतु
यदि समर्पण की प्रार्थना एक अंजलि अथवा एक लोटा  जल अर्पण करते हुए एक बार अवश्य करेँ तो अति उत्तम होगा ।
क्योँ कि जल संकल्प का भी कार्य करती है ।
जो हमें परमात्मा की शरण प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है

कृपया इस वीडियो को किसी प्रकार का धर्म प्रचार अथवा प्रर्दशन ना समझें
ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और
मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए।

प्रभु जी आप सभी आदरणीय व प्रिय मित्रों को
अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की ।।

Saturday, March 14, 2020

9:25 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.16

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता)
भाग.16


मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है
मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप न केवल प्रदान किया
बल्कि
जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।

मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है

"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें 
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।
🙏
आपका अपना एक प्रभु शरणागत सेवक।
।। जय जय श्री सीताराम।।






🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_

Thursday, March 12, 2020

6:38 PM

पूर्ण समर्पण भाग-1

पूर्ण समर्पण
भाग .1



_/\_
बात उन दिनोँ की है जब प्रभु जी एक-एक कर
अपनी कई ज्ञान प्रदायिनी लीलाऐँ कर चुके थे
पड़ोस की एक बहन पर "ऊपरी(प्रेत)बाधा" थी

"कुछ भाई ,बहन भूत ,प्रेत आदि को नही मानते
होँगे
परन्तु एक सत्य ये भी है कि हम अपने प्रारब्ध
(भाग्य) का भोग इनके भी माध्यम से करतेँ हैँ ।
उस बहन की दुर्दशा की बातेँ सुन-सुन मुझे बड़ा
दुख होता । सुनने मेँ आया कि उसका जीवन भी
सँकट मेँ है ।
मैँ सोच मेँ पड़ गया कि यदि इस बहन को "प्रभु
शरणागति" के लिए प्रेरित करूँ तो शायद इसके
"प्रारब्ध"(भाग्य) से अनहोनी टल जाऐ और
होनी सहनशीलता के अनुकूल हो जाऐ ।
अब मेरे सम्मुख ये समस्या थी कि उस बहन के
हृदय मेँ "भगवत परायणता" का भाव कैसे प्रकट
करूँ ?
आखिर किसी से केवल इतना कहने मात्र से ही
कि "ईश्वर की शरण अपनाइए" भला क्योँ
अपनाऐगा ।
यदि मान भी जाऐ तो भी "समर्पण" हृदय की
भावपूर्ण पुकार(प्रार्थना) है
अतः सुनने वाले के हृदय मेँ भाव जाग्रत करने के
लिए
महज चार पन्नोँ मेँ ही "प्रभु प्रदत्त" अपनेँ
अनुभवोँ को निचोड़ कर अपने पड़ोसी बहन को दे
दिया ।
जिसे पढ़ कर ना केवल वो बहन प्रभावित हुई
बल्कि
उसकी छोटी बहन और मेरी भतीजियाँ भी
प्रभावित हो कर प्रभु सम्मुख समर्पण कर बैठीँ

उस पत्र की प्रभावशीलता कुछ अन्य करीबियोँ
पर भी देख मुझे भी कुछ ऐसा आभास होने लगा
कि
जैसे प्रभु जी ने जो अनुभव रूपी धन दिया है वो
बेहद अनमोल है
जिसे बाँट कर मैँ अपने सेवा धर्म का पालन कर
सकता हूँ ।
अब उसी पत्र की फोटो कापी करवा कर
करीबियोँ मेँ भी बाँटने लगा ।
गाँव गया तो भागवत कथा वाचक(ब्यास जी)
जो "कथा सम्राट शुक्ला जी" के नाम से मेरे
फेसबुक पर भी जुड़े हुए हैँ
उन्हेँ भी उसकी प्रतियाँ देते हुए आग्रह किया
कि - "वे जहाँ भी भागवत कथा कहेँ भक्तोँ
को"प्रभु शरणागति" के लिए अवश्य प्रेरित करेँ

जिसे पढ़ कर श्री ब्यास जी भावविभोर हो
अपनी स्वीकृति दे दी ।
जिससे मुझे अपार शान्ति मिली ।
इसी प्रकार रेलवे स्टेशन पर एक बुर्जुग
महात्मा दिखाई दिए जो धोती ,कुर्ता पहने
माथे पर तिलक लगाऐ हुए थे ।
पूछने पर पता चला वो शिछक थे ।
उन्हे भी वो प्रतियाँ देने की मँशा से सँकुचाते
हुए पूछ बैठा कि - "क्या आप ईश्वर मेँ विश्वास
करतेँ हैँ ?"
उत्तर मे वो महात्मन एक प्रभु कथा सुनाने लगे
-
"एक बार एक प्रभु भक्त किसी गाँव से गुजर
रहा था । जिसमेँ नास्तिक लोग रहते थे ।
कुछ नास्तिक भक्त को पत्थर मारने लगे ।
पत्थर लगते ही भक्त "हे कृष्ण" "हे कृष्ण"
पुकारने लगता ।
सँयोगवश प्रभु जी उस समय भोजन करने बैठे ही
थे कि भक्त की पुकार सुन उठ कर चल दिए
परन्तु कुछ दूर चल कर वापस लौट आऐ ।
इस पर रानियोँ ने प्रभु जी से इसका रहस्य
पूछा तो प्रभु जी बोले - "एक भक्त सँकट मेँ था
जो मुझे पुकार रहा था
परन्तु जब मैँ उसकी रछा के लिए जा रहा था
तो देखा कि उस भक्त ने मुझे पुकारना छोड़ स्वयँ
ही पत्थर उठा लिया ।
जब मैने देखा कि उस भक्त ने मुझ पर विश्वास
त्याग स्वयँ ही पत्थर उठा कर डट गया तो मुझे
वहाँ जाना उचित नही लगा ।
ये कथा सुनते ही मेरी आँखेँ अश्रुपात करने लगी
आँखोँ मेँ प्रभु लीला का वो दृष्य घूमने लगा जो
पूरी तरह इस कथा से मेल खा रहा था ।
एक बार जब मैँ प्रभु जी के
शिवलिँग रूप पर जल चढ़ा रहा था तो मैने
पाया कि मेरे एक कान से गाढ़ा पस(मवाद)
बहता हुआ टपकने को आतुर था । इस कान के
ईलाज के लिए पिछले पाँच साल से बहुत दवाइयाँ
खा चुका था यहाँ तक कि आपरेशन भी करवा
चुका था
परन्तु कान का बहना बन्द नही हुआ था ।
( _/\_प्रभु कृपा से मुझमेँ एक विशेषता ये रही है
कि मै
समस्त देवी देवताओँ मे एक ही प्रभु जी को
देखता रहा हूँ इस कारण मैँ प्रभु जी के समस्त
रूपोँ को माता श्री ,पिता श्री अथवा गुरूदेव
ही कहकर पुकारता रहा हूँ।)
बहते कान को देख
मै दुःख और छोभ मेँ पुकार उठा - "जाओ पिता
श्री अब मेरे वश मेँ नही है आपके इस शरीर को
सँभालना । बहुत दवा डाल और खा चुका । अब
इसे चाहे सड़ा दो चाहे गला दो शरीर आपका है
मर्जी आपकी है ।"
इतना कहते हुए जल
अर्पण कर मन्दिर से घर वापस आ गया ।
तत्पश्चात कान की ओर से ध्यान देना ही बन्द
कर दिया सप्ताह ,महीना ,साल बीत गये
परन्तु कान की ओर से कोई भी शिकायत ना
मिली ।
अब मै प्रभु जी की इस लीला के प्रति
चिन्तनशील था कि आखिर प्रभु जी का इस
लीला से क्या अभिप्राय था ।
परन्तु आज उन महात्मन के द्वारा इसका जवाब
मिल चुका था ।
अब तो आँशू भरी मेरी आँखेँ भी कहतीँ है कि
"शायद पूर्ण शरणागति की यही वो अवस्था है
जो प्रभु जी को द्रवित कर देती है ।"
किसी भी सँकट के प्रति पुरूषार्थ करना
प्रत्येक मनुष्य का धर्म है
परन्तु
अहँकार के वशीभूत होने के बजाय प्रभु
परायणता की भावना से पुरूषार्थ करेँ ।
ये मान कर कर्म करेँ आपके कर्मोँ मे प्रभु जी की
ही प्रेरणा है ।
आपके ये विश्वास निश्चय ही रँग लाऐगा क्यो
कि
"विश्वास मेँ ही परमात्मा का मूल वास है।"
आप सभी प्यारे व आदरणीय प्रभु भक्त भाई
,बहनोँ को सहृदय_/\_प्रणाम् ।
प्रभु जी आपका जीवन सार्थक करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।


https://prabhusharanagti.blogspot.com/
6:14 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.15

भगवत गीता
भाग-15


सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।


प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।

आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Wednesday, March 11, 2020

7:04 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.14

https://prabhusharanagti.blogspot.com/

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Tuesday, March 10, 2020

5:40 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.13

भगवत गीता
भाग.13

🙏
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए भी अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"

(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" मै नहीं जानता कि आप ईश्वर है या अल्लाह,

परन्तु आप जो भी है इस सम्पूर्ण जगत के पालनहार और सर्व-समर्थ है

अतः इस जीवन नैया की पतवार अब आपको सौंपता हूं

इसे अब आप ही सँभालिए।





2 ."हे करूणासागर" "हे दीनदयालु" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,

मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"



शरणागति का अर्थ है - "अपना समस्त अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना

अर्थात

अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना



ध्यान रहे कि -"सबका मालिक एक है"

अर्थात ईश्वर एक है

परमात्मा की *शरणागति* की योग्यता हमें तभी मिलेगी

जब हम अपने ज्ञानाभिमान से शून्य होंगे।

क्यों कि भिछा उसी पात्र में डाली जाती है

जो ख़ाली होती हैं।



अतः

समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ

ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है

जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।





☆समर्पण की प्रार्थना जीवन में कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।

एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही

ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे

उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता

क्यों कि

हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ये परमात्मा से बेहतर और भला कौन जान सकता है।

_/\_
सादर सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
।।जय श्री हरि।।

https://prabhusharanagti.blogspot.com/
5:32 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.12

श्री भागवत गीता
भाग.12

🙏
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए भी अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"

(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" मै नहीं जानता कि आप ईश्वर है या अल्लाह,

परन्तु आप जो भी है इस सम्पूर्ण जगत के पालनहार और सर्व-समर्थ है

अतः इस जीवन नैया की पतवार अब आपको सौंपता हूं

इसे अब आप ही सँभालिए।





2 ."हे करूणासागर" "हे दीनदयालु" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,

मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"



शरणागति का अर्थ है - "अपना समस्त अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना

अर्थात

अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना



ध्यान रहे कि -"सबका मालिक एक है"

अर्थात ईश्वर एक है

परमात्मा की *शरणागति* की योग्यता हमें तभी मिलेगी

जब हम अपने ज्ञानाभिमान से शून्य होंगे।

क्यों कि भिछा उसी पात्र में डाली जाती है

जो ख़ाली होती हैं।



अतः

समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ

ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है

जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।





☆समर्पण की प्रार्थना जीवन में कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।

एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही

ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे

उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता

क्यों कि

हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ये परमात्मा से बेहतर और भला कौन जान सकता है।

_/\_
सादर सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
।।जय श्री हरि।।


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5:21 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.11

श्री भागवत गीता
भाग.11

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं 
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है 
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।
 
आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा 
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि 
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध 
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।




5:10 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.10

श्री भागवत गीता

भाग.10


मेरे प्यारे दोस्तों हमें अपने जीवन में भले ही कितनी उपलब्धियां धन ऐश्वर्य और सुख संसाधन मिल जाए
परंतु
यदि मन की शांति नहीं मिली तो सब व्यर्थ प्रतीत होता है

मन की शांति आखिर है क्या और
हमारे जीवन में इसकी उपलब्धि कैसे हो ?

इस विषयझ पर मैं पूर्ण प्रयास करूंगा कि मेरे गुरुदेव "श्री भगवान" ने जैसे जिस प्रकार अनुभव , ज्ञान और कृपा प्रदान कर मुझे शांति प्रदान की

उसी प्रकार आपके जीवन में भी शांति का प्रादुर्भाव हो।


मेरे प्यारे दोस्तों सर्वप्रथम तो मैं यह बताना चाहूंगा कि यह सुख और दुख मन की माया अर्थात भावनाओं का खेल है।

इन सुख और दुख की वृत्तियों से मुक्त हुए बिना शांति असंभव है।

क्योंकि यह सुख दुख भी हमारे मन के आसक्तियों अर्थात मोह के कारण उत्पन्न होती है

मन की शांति का परिस्थितियों से कोई लेना-देना नहीं,
भावनाएं यदि नियन्त्रण में तो मन सदैव स्थिर और शांत रहता है

काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार आदि भावनाओं की शिथिलता ही हमारे मन के शांति की अवस्था है।

 हमारा संपूर्ण जीवन इन्ही भावनाओं की माया में ही उलझा रहता है।

सुख-दुख की भावना से ऊपर उठकर ही हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं।



सबसे पहले हम यह जानते हैं कि सुख और दुख है क्या ?

सुख और दुख हमारे मन की क्रियाएं अर्थात भावनाएं हैं

जब हम किसी उद्देश्य को लक्ष्य बनाकर कर्म करते हैं

तब हमारा मन कार्य सिद्धि अथवा फल प्राप्ति की कामना के वशीभूत हो जाता है

कार्य प्रारंभ करने से पूर्व ही हम फल और उसके तरह-तरह की कामनाओं के स्वप्नजाल बुनने लगते हैं

यह स्वप्नजाल ही हमारे सुख और दुख का कारण होती है।

हमारे मन में फल प्राप्ति की कामना जितनी अधिक तीव्र होती है

ये सुख अथवा दुख के भाव भी उतने ही अधिक मात्रा में हमारे मन पर अपना प्रभाव डालते हैं

फल यदि मन वांछित हो तो सुख और यदि विपरीत हो तो दुख की अनुभूति होती है

 संसार की परिवर्तनशीलता के कारण ना तो कभी सुख स्थिर रह सकता है और ना ही कभी दुख स्थिर हो पाता है।

इसे हम एक उदाहरण के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे

जैसे किसी नन्हे बालक की कामना के अनुरूप उसे उसका मनपसंद खिलौना मिल जाए तो
वह बालक बहुत ही प्रसन्न होकर सुख की अनुभूति करने लगता है
परंतु उस खिलौने से मिलता हुआ सुख धीरे-धीरे समाप्त होता जाता है।

पहले दिन वो बालक पूरा दिन उस खिलौने को सीने से लगाए खेलने और सब को दिखाने में आनंद लेता रहता है।

दूसरे दिन कुछ ही घंटे उसमें दिलचस्पी दिखाता है

परंतु कुछ ही दिनों में उस खिलौने के प्रति उस बालक की आसक्ति समाप्त होती जाती है।

कुछ दिनों बाद वो खिलौना घर के किस कोने में पड़ा है उस बालक को भी इसकी शुधि नहीं होती है ।

मेरे प्यारे दोस्तों यही अवस्था हमारे मन की होती है कि हम कोई भी सुख साधन अवस्था-ब्यवस्था भले ही प्राप्त कर ले
परंतु
उससे मिलने वाला सुख हमेशा स्थिर नहीं रह सकता
क्योंकि
हमारे मन को उस सुख सुविधा की आदत हो जाती है

जिसके कारण हमारे मन से सुख की वो अनुभूतियां धीरे-धीरे लुप्त हो जाती है

परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है
जो संसार को चलायमान रखे हुए।

यदि हमें जीवन में शांति प्राप्त करनी है
तो हमें अपने मन की भावनाओं को सूक्ष्मता से समझना और नियंत्रण पाना होगा।

जैसे कि हमारा मन किन परिस्थितियों में कैसी और किस भावना में डूब जाता है और क्यों डूब जाता है ?
और
उस भावना के कारण हमारी कैसी मनोदशा हो जाती है ?

जिस प्रकार हम शत्रु पर विजय पाने से पूर्व उसकी शक्ति सामर्थ्य और बल आदि का अवलोकन करते हैं

ठीक उसी प्रकार हमें अपने मन पर विजय पाने के लिए अपने मन और उस में निवास करने वाली अनंत भावनाओं को जानना अति आवश्यक होता हैं
तभी उन पर अंकुश लगाना संभव हो सकेगा।

वैसे तो हमें सत्संग और भागवत कथाओं से बहुत सारे ज्ञान और प्रेरणाएं मिलती हैं

जो हमारे मन की शांति के लिए मील का पत्थर होती है
परंतु
वह ज्ञान भी आवश्यकता पड़ने पर वैसे ही लुप्त हो जाता है
जैसे
शमशान भूमि से निकलने के बाद हमारा वैराग्य लुप्त हो जाता है।


शांति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारे मन के भीतर निवास करने वाली असंख्य भावनाओं में पांच भावनाएं ऐसी हैं जिन्हें हम पंच विकार के रूप में जानते हैं।

जैसे कि - काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह और अहंकार।

यही पंच विकार वास्तव में माया का मूल स्वरूप है।

जिनके कारण ही हम जीवन भर सुख-दुख, हानि-लाभ,जय-पराजय,मान-अपमान द्वेष-क्रोध ईर्ष्या राग(आसक्ति) आदि भावनाओं में डूबते रहते हैं।
जो हमारे मन की अशांति का सबसे बड़ा कारण होती है।

मन की शांति इन भावनाओं से ऊपर उठने के पश्चात ही मिलती है।

हमें इन भावनाओं से मुक्त होना भले ही असंभव दिखाई देता हो
परंतु
इस जगत के रचयिता "जगत पिता" परमात्मा के लिए कुछ भी करना असंभव नहीं है।

वह घट घट वासी है और सर्वव्यापी भी।

किसका किस माध्यम और कैसे कल्याण करना है ?

हमारे लिए क्या आवश्यक है और क्या अनावश्यक है?
वे सब कुछ भली-भांति जानतें हैं।
उन की लीलाएं और कृपाएं हमारी बुद्धि और कल्पना से भी परे है।

अब सवाल यह है कि हमें प्रभु जी की कृपा कैसे प्राप्त हो।


मेरे प्यारे दोस्तों हम सत्संग विहीनता के कारण यह नहीं जानते हैं कि श्रीमद् भागवत गीता में श्री भगवान ने ऐसी है उपाय बताई है

जिनसे हमारे जीवन में शांति और मुक्ति एकदम सहज और सरलता से प्राप्त हो जाएगी।

वह है "भगवद् आश्रय" अर्थात "परमात्मा की शरणागति"।

अधिकांशत भाई बहन की यह समझते हैं कि अपने कर्म का त्याग करके परमात्मा की पूजा ध्यान साधना ही परमात्मा की शरणागति है
परंतु
वास्तव में शरणागति अर्थात समर्पण हमारे हृदय का एक भाव होता है

जिसमें हृदय के सच्चे भाव से स्वयं को परमात्मा के प्रति अर्पण कर देना ही समर्पण अर्थात शरणागति है।


कई भाई-बहन सवाल करते हैं कि-

"हम कैसे विश्वास करें कि "भागवत गीता* "परमात्मा" की ही वाणी है ?
यह सब तो ब्राह्मणों के द्वारा अपनी आजीविका चलाने हेतु लिखी गई पुस्तकें हो सकती हैं ?

मेरे प्यारे दोस्तों इस अंतर्द्वंद से भी हमें निजात मिल जाएगी
जब हम परमात्मा के शरणागत हो जाएंगे
जब हमें परमात्मा की शरणागति प्राप्त हो जाएगी।

जैसे मेरे जीवन में घटित हुआ था।

क्योंकि जब मैंने समर्पण की प्रार्थना की थी तब एक निश्चल बालक की भांति निष्पक्ष भाव से ईश्वर और अल्लाह दोनों का आवाहन किया था ।

फिर भी मुझे जो अनुभूतियां और भगवत कृपाऐं प्राप्त हुई

 उसकी पुष्टि केवल भागवत गीता के माध्यम से ही हुई ।

अर्थात भगवत कृपा से भागवत गीता को मैंने अपने अनुभव में सत्य पाया।


वैसे भी मेरे प्यारे भाइयों बहनों सत्य स्वयं सिद्ध होता हैं
 सत्य को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है

जब आप समर्पण करेंगे तो आपके जीवन में सत्य स्वयं सिद्ध हो जाएगा।

इसीलिए प्रभु जी ने कहा है कि -

"सर्व धर्मान परित्यज्यै ,
मामेकं शरणं व्रज,
अहॅत्वा सर्वपापेभ्योः,
मोक्ष्श्चामि माशुचा।"

अर्थात - "सभी धर्मों और उसके भेदों(मतों) को भुलाकर केवल मेरी शरण में आ जाओ
मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्ति देकर शाश्वत शांति और मोक्ष प्रदान करूंगा।

सचमुच में मेरे प्यारे भाइयों बहनों प्रभु जी के इन कथनो को अपने जीवन में सत्य सिद्ध होते हुए देखा है

उसी से ही प्रेरणा पाकर हूं मैं फेसबुक और अन्य वेबसाइटों पर केवल प्रभु शरणागति की ही भावना का प्रसार करता रहता हूं।
लक्ष्य केवल एक ही है जनकल्याण।

अब सवाल ये है कि
 हमें परमात्मा की शरण कैसे मिले ?

क्योंकि लोग इसे बहुत दुर्लभ मानते हैं।

वास्तव में परमात्मा की शरणागति बड़ी ही सहज और सरल भी है

वास्तव में परमात्मा की शरणागति यूं तो एक प्रार्थना है
हमारे हृदय की एक भावपूर्ण पुकार है

जिसकी सफलता के लिए हमारे हृदय का भाव बहुत ही विशुद्ध होना आवश्यक है
परंतु
समर्पण की प्रार्थना यदि जल अर्पण करने के साथ की जाए तो एक संकल्प हो जाता है
जो निश्चय ही हमारे समर्पण को सफल सिद्ध करती है।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है।

अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।

तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं

भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है

जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।


"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"



(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -


1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।

2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना

अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।

।।जय श्री हरि।।







Peace of mind, मन की शांति कैसे पाएं, भागवत गीता
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