भगवद गीता
7:09 PM
परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.17
श्री भागवत गीता
भाग.17
नमस्कार मेरे प्यारे दोस्तों
जय श्री हरि
मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है
मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप न केवल शांति प्रेम और आनंद प्रदान किया
बल्कि
बड़ी विचित्र ढंग से जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।
मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है
"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।
मैं आपका अपना प्रभु शरणागत भक्त
आपका एक सेवक।
"प्रभु शरणागति"
शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है ?
मैँ सत्सँग विहीन इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के
मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे
महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है
जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के
द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से
कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवा अवस्था की
शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।
ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।
परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल
था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को
ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ते हुए जनसेवा की भावना से "जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग" पर चलाने की प्रार्थना कर बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू
छलक आए कि
"प्रभु जी सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते
भी है केवल हमारे हृदयगत समर्पण के भाव सच्चे होने
चाहिए।"
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द
सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता"
का पार्ट देख रहा था
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा
था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को
विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब
मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि
मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ
से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की
झोली फैला रखी है ।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना
चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योग
,साधना , पूजा आदि की शिछा दी है सब भूल
जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया
परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे फूट-फूट कर रोने
को विवश कर दिया।)
"सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला
कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता
है ।"....
"सर्व धर्मान परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान
के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर सोशल मीडिया के माध्यम से आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।
"हे जगदीश्वर ,हे दीनदयाल , हे घट घट वासी परमात्मा "
आपके समान कोई ज्ञाता नही ।
आपके समान कोई दाता नही ।
और आपके समान कोई दूजा शरणागत भक्तवत्सल
नही ।
अतः हे प्रभू मैँ अपना तन ,मन ,जीवन आपको
अर्पण करता हूँ अब इसे आप ही सँभालिए और
सार्थक कीजिए ।"
जब हम स्वयँ के अहँकार(बल,बुद्धि,ज्ञान की
श्रेष्ठता की भावना) को त्याग कर एक अबोध
बालक की भाँति अपनी जीवन रूपी नैय्या की
पतवार प्रभु के हाथोँ में सौंप देते हैँ
तो
करुणासागर की असीम कृपा से हमें वो सब
प्राप्त होने लगता है
जो हमारे लिए अनिवार्य और अत्यन्त आवश्यक
होता है ।
हे मेरे प्यारे मित्रों शँसय रहित हो नित "प्रभु
जी" से शरण मेँ लेने की पुकार करो ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।"
मेरे प्यारे दोस्तों परमात्मा की शरणागति के लिए हमारी भावनाओं का विशुद्ध होना परम आवश्यक है
परंतु
यदि समर्पण की प्रार्थना एक अंजलि अथवा एक लोटा जल अर्पण करते हुए एक बार अवश्य करेँ तो अति उत्तम होगा ।
क्योँ कि जल संकल्प का भी कार्य करती है ।
जो हमें परमात्मा की शरण प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है
कृपया इस वीडियो को किसी प्रकार का धर्म प्रचार अथवा प्रर्दशन ना समझें
ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और
मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए।
प्रभु जी आप सभी आदरणीय व प्रिय मित्रों को
अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की ।।
भाग.17
नमस्कार मेरे प्यारे दोस्तों
जय श्री हरि
मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है
मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप न केवल शांति प्रेम और आनंद प्रदान किया
बल्कि
बड़ी विचित्र ढंग से जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।
मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है
"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।
मैं आपका अपना प्रभु शरणागत भक्त
आपका एक सेवक।
"प्रभु शरणागति"
शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है ?
मैँ सत्सँग विहीन इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के
मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे
महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है
जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के
द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से
कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवा अवस्था की
शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।
ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।
परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल
था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को
ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ते हुए जनसेवा की भावना से "जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग" पर चलाने की प्रार्थना कर बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू
छलक आए कि
"प्रभु जी सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते
भी है केवल हमारे हृदयगत समर्पण के भाव सच्चे होने
चाहिए।"
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द
सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता"
का पार्ट देख रहा था
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा
था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को
विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब
मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि
मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ
से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की
झोली फैला रखी है ।
तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना
चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योग
,साधना , पूजा आदि की शिछा दी है सब भूल
जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया
परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे फूट-फूट कर रोने
को विवश कर दिया।)
"सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला
कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता
है ।"....
"सर्व धर्मान परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान
के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर सोशल मीडिया के माध्यम से आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।
"हे जगदीश्वर ,हे दीनदयाल , हे घट घट वासी परमात्मा "
आपके समान कोई ज्ञाता नही ।
आपके समान कोई दाता नही ।
और आपके समान कोई दूजा शरणागत भक्तवत्सल
नही ।
अतः हे प्रभू मैँ अपना तन ,मन ,जीवन आपको
अर्पण करता हूँ अब इसे आप ही सँभालिए और
सार्थक कीजिए ।"
जब हम स्वयँ के अहँकार(बल,बुद्धि,ज्ञान की
श्रेष्ठता की भावना) को त्याग कर एक अबोध
बालक की भाँति अपनी जीवन रूपी नैय्या की
पतवार प्रभु के हाथोँ में सौंप देते हैँ
तो
करुणासागर की असीम कृपा से हमें वो सब
प्राप्त होने लगता है
जो हमारे लिए अनिवार्य और अत्यन्त आवश्यक
होता है ।
हे मेरे प्यारे मित्रों शँसय रहित हो नित "प्रभु
जी" से शरण मेँ लेने की पुकार करो ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।"
मेरे प्यारे दोस्तों परमात्मा की शरणागति के लिए हमारी भावनाओं का विशुद्ध होना परम आवश्यक है
परंतु
यदि समर्पण की प्रार्थना एक अंजलि अथवा एक लोटा जल अर्पण करते हुए एक बार अवश्य करेँ तो अति उत्तम होगा ।
क्योँ कि जल संकल्प का भी कार्य करती है ।
जो हमें परमात्मा की शरण प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है
कृपया इस वीडियो को किसी प्रकार का धर्म प्रचार अथवा प्रर्दशन ना समझें
ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और
मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए।
प्रभु जी आप सभी आदरणीय व प्रिय मित्रों को
अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की ।।