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प्रेम,शांति, आनंद,मोक्ष और भगवत कृपा प्रदायिनी अनुभव और अनन्त भावपूर्ण प्रेरणाएं

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Sunday, March 15, 2020

7:09 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.17

श्री भागवत गीता
भाग.17

नमस्कार मेरे प्यारे दोस्तों

जय श्री हरि

मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है
मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप न केवल शांति प्रेम और आनंद  प्रदान किया
बल्कि
बड़ी विचित्र ढंग से  जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।

मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है

"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।

मैं आपका अपना प्रभु शरणागत भक्त
आपका एक सेवक।


"प्रभु शरणागति"

शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी कल्पनाऐँ है ?
मैँ सत्सँग विहीन इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के
मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे
महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक है
जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से समझ सकेँ ।

प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के
द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से
कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवा अवस्था की
शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति के हाथोँ की कठपुतली बन गया
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।
ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।
परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब "भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल
था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को
ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ते हुए जनसेवा की भावना से "जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग" पर चलाने की प्रार्थना कर बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू
छलक आए कि
"प्रभु जी सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते
भी है केवल हमारे हृदयगत समर्पण के भाव सच्चे होने
चाहिए।"
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द
सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता"
का पार्ट देख रहा था
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा
था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को
विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब
मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि
मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ
से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की
झोली फैला रखी है ।

तब भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना
चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योग
,साधना , पूजा आदि की शिछा दी है सब भूल
जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया
परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे फूट-फूट कर रोने
को विवश कर दिया।)
"सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला
कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता
है ।"....
"सर्व धर्मान परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान
के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर सोशल मीडिया के माध्यम से आप लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने का प्रयास करता रहता हूँ ।
"हे जगदीश्वर ,हे दीनदयाल , हे घट घट वासी परमात्मा "
आपके समान कोई ज्ञाता नही ।
आपके समान कोई दाता नही ।
और आपके समान कोई दूजा शरणागत भक्तवत्सल
नही ।
अतः हे प्रभू मैँ अपना तन ,मन ,जीवन आपको
अर्पण करता हूँ अब इसे आप ही सँभालिए और
सार्थक कीजिए ।"
जब हम स्वयँ के अहँकार(बल,बुद्धि,ज्ञान की
श्रेष्ठता की भावना) को त्याग कर एक अबोध
बालक की भाँति अपनी जीवन रूपी नैय्या की
पतवार प्रभु के हाथोँ में सौंप देते हैँ
तो
करुणासागर की असीम कृपा से हमें वो सब
प्राप्त होने लगता है
जो हमारे लिए अनिवार्य और अत्यन्त आवश्यक
होता है ।
हे मेरे प्यारे मित्रों शँसय रहित हो नित "प्रभु
जी" से शरण मेँ लेने की पुकार करो ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।"

मेरे प्यारे दोस्तों परमात्मा की शरणागति के लिए हमारी भावनाओं का विशुद्ध होना परम आवश्यक है
परंतु
यदि समर्पण की प्रार्थना एक अंजलि अथवा एक लोटा  जल अर्पण करते हुए एक बार अवश्य करेँ तो अति उत्तम होगा ।
क्योँ कि जल संकल्प का भी कार्य करती है ।
जो हमें परमात्मा की शरण प्राप्ति के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है

कृपया इस वीडियो को किसी प्रकार का धर्म प्रचार अथवा प्रर्दशन ना समझें
ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और
मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए।

प्रभु जी आप सभी आदरणीय व प्रिय मित्रों को
अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की ।।

Saturday, March 14, 2020

9:25 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.16

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता)
भाग.16


मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति"
मेरे प्यारे भाइयों बहनों मन की शांति पाना भले ही हमें असंभव दिखाई दे,
परंतु
मन की शांति प्रदान करना परमात्मा के लिए असंभव नहीं है
मेरे गुरुदेव"श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप न केवल प्रदान किया
बल्कि
जनसेवार्थ "समर्पण भाव" बांटने के लिए संकल्पबद्ध भी कराया।

मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम कराना है जो कि अति दुर्लभ और अति आवश्यक भी है

"समर्पण भाव" कोई पूजा पाठ अथवा योग साधना नहीं
यह परमात्मा के प्रति स्वयं को अर्पण करने का एक विशुद्ध भाव मात्र है।
एक बार आजमा कर अवश्य देखें 
मन के शांति की सौ परसेंट गारंटी है।
🙏
आपका अपना एक प्रभु शरणागत सेवक।
।। जय जय श्री सीताराम।।






🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_

Thursday, March 12, 2020

6:38 PM

पूर्ण समर्पण भाग-1

पूर्ण समर्पण
भाग .1



_/\_
बात उन दिनोँ की है जब प्रभु जी एक-एक कर
अपनी कई ज्ञान प्रदायिनी लीलाऐँ कर चुके थे
पड़ोस की एक बहन पर "ऊपरी(प्रेत)बाधा" थी

"कुछ भाई ,बहन भूत ,प्रेत आदि को नही मानते
होँगे
परन्तु एक सत्य ये भी है कि हम अपने प्रारब्ध
(भाग्य) का भोग इनके भी माध्यम से करतेँ हैँ ।
उस बहन की दुर्दशा की बातेँ सुन-सुन मुझे बड़ा
दुख होता । सुनने मेँ आया कि उसका जीवन भी
सँकट मेँ है ।
मैँ सोच मेँ पड़ गया कि यदि इस बहन को "प्रभु
शरणागति" के लिए प्रेरित करूँ तो शायद इसके
"प्रारब्ध"(भाग्य) से अनहोनी टल जाऐ और
होनी सहनशीलता के अनुकूल हो जाऐ ।
अब मेरे सम्मुख ये समस्या थी कि उस बहन के
हृदय मेँ "भगवत परायणता" का भाव कैसे प्रकट
करूँ ?
आखिर किसी से केवल इतना कहने मात्र से ही
कि "ईश्वर की शरण अपनाइए" भला क्योँ
अपनाऐगा ।
यदि मान भी जाऐ तो भी "समर्पण" हृदय की
भावपूर्ण पुकार(प्रार्थना) है
अतः सुनने वाले के हृदय मेँ भाव जाग्रत करने के
लिए
महज चार पन्नोँ मेँ ही "प्रभु प्रदत्त" अपनेँ
अनुभवोँ को निचोड़ कर अपने पड़ोसी बहन को दे
दिया ।
जिसे पढ़ कर ना केवल वो बहन प्रभावित हुई
बल्कि
उसकी छोटी बहन और मेरी भतीजियाँ भी
प्रभावित हो कर प्रभु सम्मुख समर्पण कर बैठीँ

उस पत्र की प्रभावशीलता कुछ अन्य करीबियोँ
पर भी देख मुझे भी कुछ ऐसा आभास होने लगा
कि
जैसे प्रभु जी ने जो अनुभव रूपी धन दिया है वो
बेहद अनमोल है
जिसे बाँट कर मैँ अपने सेवा धर्म का पालन कर
सकता हूँ ।
अब उसी पत्र की फोटो कापी करवा कर
करीबियोँ मेँ भी बाँटने लगा ।
गाँव गया तो भागवत कथा वाचक(ब्यास जी)
जो "कथा सम्राट शुक्ला जी" के नाम से मेरे
फेसबुक पर भी जुड़े हुए हैँ
उन्हेँ भी उसकी प्रतियाँ देते हुए आग्रह किया
कि - "वे जहाँ भी भागवत कथा कहेँ भक्तोँ
को"प्रभु शरणागति" के लिए अवश्य प्रेरित करेँ

जिसे पढ़ कर श्री ब्यास जी भावविभोर हो
अपनी स्वीकृति दे दी ।
जिससे मुझे अपार शान्ति मिली ।
इसी प्रकार रेलवे स्टेशन पर एक बुर्जुग
महात्मा दिखाई दिए जो धोती ,कुर्ता पहने
माथे पर तिलक लगाऐ हुए थे ।
पूछने पर पता चला वो शिछक थे ।
उन्हे भी वो प्रतियाँ देने की मँशा से सँकुचाते
हुए पूछ बैठा कि - "क्या आप ईश्वर मेँ विश्वास
करतेँ हैँ ?"
उत्तर मे वो महात्मन एक प्रभु कथा सुनाने लगे
-
"एक बार एक प्रभु भक्त किसी गाँव से गुजर
रहा था । जिसमेँ नास्तिक लोग रहते थे ।
कुछ नास्तिक भक्त को पत्थर मारने लगे ।
पत्थर लगते ही भक्त "हे कृष्ण" "हे कृष्ण"
पुकारने लगता ।
सँयोगवश प्रभु जी उस समय भोजन करने बैठे ही
थे कि भक्त की पुकार सुन उठ कर चल दिए
परन्तु कुछ दूर चल कर वापस लौट आऐ ।
इस पर रानियोँ ने प्रभु जी से इसका रहस्य
पूछा तो प्रभु जी बोले - "एक भक्त सँकट मेँ था
जो मुझे पुकार रहा था
परन्तु जब मैँ उसकी रछा के लिए जा रहा था
तो देखा कि उस भक्त ने मुझे पुकारना छोड़ स्वयँ
ही पत्थर उठा लिया ।
जब मैने देखा कि उस भक्त ने मुझ पर विश्वास
त्याग स्वयँ ही पत्थर उठा कर डट गया तो मुझे
वहाँ जाना उचित नही लगा ।
ये कथा सुनते ही मेरी आँखेँ अश्रुपात करने लगी
आँखोँ मेँ प्रभु लीला का वो दृष्य घूमने लगा जो
पूरी तरह इस कथा से मेल खा रहा था ।
एक बार जब मैँ प्रभु जी के
शिवलिँग रूप पर जल चढ़ा रहा था तो मैने
पाया कि मेरे एक कान से गाढ़ा पस(मवाद)
बहता हुआ टपकने को आतुर था । इस कान के
ईलाज के लिए पिछले पाँच साल से बहुत दवाइयाँ
खा चुका था यहाँ तक कि आपरेशन भी करवा
चुका था
परन्तु कान का बहना बन्द नही हुआ था ।
( _/\_प्रभु कृपा से मुझमेँ एक विशेषता ये रही है
कि मै
समस्त देवी देवताओँ मे एक ही प्रभु जी को
देखता रहा हूँ इस कारण मैँ प्रभु जी के समस्त
रूपोँ को माता श्री ,पिता श्री अथवा गुरूदेव
ही कहकर पुकारता रहा हूँ।)
बहते कान को देख
मै दुःख और छोभ मेँ पुकार उठा - "जाओ पिता
श्री अब मेरे वश मेँ नही है आपके इस शरीर को
सँभालना । बहुत दवा डाल और खा चुका । अब
इसे चाहे सड़ा दो चाहे गला दो शरीर आपका है
मर्जी आपकी है ।"
इतना कहते हुए जल
अर्पण कर मन्दिर से घर वापस आ गया ।
तत्पश्चात कान की ओर से ध्यान देना ही बन्द
कर दिया सप्ताह ,महीना ,साल बीत गये
परन्तु कान की ओर से कोई भी शिकायत ना
मिली ।
अब मै प्रभु जी की इस लीला के प्रति
चिन्तनशील था कि आखिर प्रभु जी का इस
लीला से क्या अभिप्राय था ।
परन्तु आज उन महात्मन के द्वारा इसका जवाब
मिल चुका था ।
अब तो आँशू भरी मेरी आँखेँ भी कहतीँ है कि
"शायद पूर्ण शरणागति की यही वो अवस्था है
जो प्रभु जी को द्रवित कर देती है ।"
किसी भी सँकट के प्रति पुरूषार्थ करना
प्रत्येक मनुष्य का धर्म है
परन्तु
अहँकार के वशीभूत होने के बजाय प्रभु
परायणता की भावना से पुरूषार्थ करेँ ।
ये मान कर कर्म करेँ आपके कर्मोँ मे प्रभु जी की
ही प्रेरणा है ।
आपके ये विश्वास निश्चय ही रँग लाऐगा क्यो
कि
"विश्वास मेँ ही परमात्मा का मूल वास है।"
आप सभी प्यारे व आदरणीय प्रभु भक्त भाई
,बहनोँ को सहृदय_/\_प्रणाम् ।
प्रभु जी आपका जीवन सार्थक करेँ ।
।।जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।


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6:14 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.15

भगवत गीता
भाग-15


सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।


प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।

आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Wednesday, March 11, 2020

7:04 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.14

https://prabhusharanagti.blogspot.com/

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Tuesday, March 10, 2020

5:40 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.13

भगवत गीता
भाग.13

🙏
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए भी अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"

(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" मै नहीं जानता कि आप ईश्वर है या अल्लाह,

परन्तु आप जो भी है इस सम्पूर्ण जगत के पालनहार और सर्व-समर्थ है

अतः इस जीवन नैया की पतवार अब आपको सौंपता हूं

इसे अब आप ही सँभालिए।





2 ."हे करूणासागर" "हे दीनदयालु" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,

मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"



शरणागति का अर्थ है - "अपना समस्त अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना

अर्थात

अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना



ध्यान रहे कि -"सबका मालिक एक है"

अर्थात ईश्वर एक है

परमात्मा की *शरणागति* की योग्यता हमें तभी मिलेगी

जब हम अपने ज्ञानाभिमान से शून्य होंगे।

क्यों कि भिछा उसी पात्र में डाली जाती है

जो ख़ाली होती हैं।



अतः

समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ

ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है

जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।





☆समर्पण की प्रार्थना जीवन में कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।

एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही

ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे

उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता

क्यों कि

हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ये परमात्मा से बेहतर और भला कौन जान सकता है।

_/\_
सादर सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
।।जय श्री हरि।।

https://prabhusharanagti.blogspot.com/
5:32 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.12

श्री भागवत गीता
भाग.12

🙏
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए भी अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"

(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" मै नहीं जानता कि आप ईश्वर है या अल्लाह,

परन्तु आप जो भी है इस सम्पूर्ण जगत के पालनहार और सर्व-समर्थ है

अतः इस जीवन नैया की पतवार अब आपको सौंपता हूं

इसे अब आप ही सँभालिए।





2 ."हे करूणासागर" "हे दीनदयालु" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,

मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"



शरणागति का अर्थ है - "अपना समस्त अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना

अर्थात

अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना



ध्यान रहे कि -"सबका मालिक एक है"

अर्थात ईश्वर एक है

परमात्मा की *शरणागति* की योग्यता हमें तभी मिलेगी

जब हम अपने ज्ञानाभिमान से शून्य होंगे।

क्यों कि भिछा उसी पात्र में डाली जाती है

जो ख़ाली होती हैं।



अतः

समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ

ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है

जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।





☆समर्पण की प्रार्थना जीवन में कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।

एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही

ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे

उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता

क्यों कि

हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ये परमात्मा से बेहतर और भला कौन जान सकता है।

_/\_
सादर सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
।।जय श्री हरि।।


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5:21 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.11

श्री भागवत गीता
भाग.11

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए 
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं 
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है 
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।
 
आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा 
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि 
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध 
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।




5:10 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.10

श्री भागवत गीता

भाग.10


मेरे प्यारे दोस्तों हमें अपने जीवन में भले ही कितनी उपलब्धियां धन ऐश्वर्य और सुख संसाधन मिल जाए
परंतु
यदि मन की शांति नहीं मिली तो सब व्यर्थ प्रतीत होता है

मन की शांति आखिर है क्या और
हमारे जीवन में इसकी उपलब्धि कैसे हो ?

इस विषयझ पर मैं पूर्ण प्रयास करूंगा कि मेरे गुरुदेव "श्री भगवान" ने जैसे जिस प्रकार अनुभव , ज्ञान और कृपा प्रदान कर मुझे शांति प्रदान की

उसी प्रकार आपके जीवन में भी शांति का प्रादुर्भाव हो।


मेरे प्यारे दोस्तों सर्वप्रथम तो मैं यह बताना चाहूंगा कि यह सुख और दुख मन की माया अर्थात भावनाओं का खेल है।

इन सुख और दुख की वृत्तियों से मुक्त हुए बिना शांति असंभव है।

क्योंकि यह सुख दुख भी हमारे मन के आसक्तियों अर्थात मोह के कारण उत्पन्न होती है

मन की शांति का परिस्थितियों से कोई लेना-देना नहीं,
भावनाएं यदि नियन्त्रण में तो मन सदैव स्थिर और शांत रहता है

काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार आदि भावनाओं की शिथिलता ही हमारे मन के शांति की अवस्था है।

 हमारा संपूर्ण जीवन इन्ही भावनाओं की माया में ही उलझा रहता है।

सुख-दुख की भावना से ऊपर उठकर ही हम शांति को प्राप्त कर सकते हैं।



सबसे पहले हम यह जानते हैं कि सुख और दुख है क्या ?

सुख और दुख हमारे मन की क्रियाएं अर्थात भावनाएं हैं

जब हम किसी उद्देश्य को लक्ष्य बनाकर कर्म करते हैं

तब हमारा मन कार्य सिद्धि अथवा फल प्राप्ति की कामना के वशीभूत हो जाता है

कार्य प्रारंभ करने से पूर्व ही हम फल और उसके तरह-तरह की कामनाओं के स्वप्नजाल बुनने लगते हैं

यह स्वप्नजाल ही हमारे सुख और दुख का कारण होती है।

हमारे मन में फल प्राप्ति की कामना जितनी अधिक तीव्र होती है

ये सुख अथवा दुख के भाव भी उतने ही अधिक मात्रा में हमारे मन पर अपना प्रभाव डालते हैं

फल यदि मन वांछित हो तो सुख और यदि विपरीत हो तो दुख की अनुभूति होती है

 संसार की परिवर्तनशीलता के कारण ना तो कभी सुख स्थिर रह सकता है और ना ही कभी दुख स्थिर हो पाता है।

इसे हम एक उदाहरण के माध्यम से जानने का प्रयास करेंगे

जैसे किसी नन्हे बालक की कामना के अनुरूप उसे उसका मनपसंद खिलौना मिल जाए तो
वह बालक बहुत ही प्रसन्न होकर सुख की अनुभूति करने लगता है
परंतु उस खिलौने से मिलता हुआ सुख धीरे-धीरे समाप्त होता जाता है।

पहले दिन वो बालक पूरा दिन उस खिलौने को सीने से लगाए खेलने और सब को दिखाने में आनंद लेता रहता है।

दूसरे दिन कुछ ही घंटे उसमें दिलचस्पी दिखाता है

परंतु कुछ ही दिनों में उस खिलौने के प्रति उस बालक की आसक्ति समाप्त होती जाती है।

कुछ दिनों बाद वो खिलौना घर के किस कोने में पड़ा है उस बालक को भी इसकी शुधि नहीं होती है ।

मेरे प्यारे दोस्तों यही अवस्था हमारे मन की होती है कि हम कोई भी सुख साधन अवस्था-ब्यवस्था भले ही प्राप्त कर ले
परंतु
उससे मिलने वाला सुख हमेशा स्थिर नहीं रह सकता
क्योंकि
हमारे मन को उस सुख सुविधा की आदत हो जाती है

जिसके कारण हमारे मन से सुख की वो अनुभूतियां धीरे-धीरे लुप्त हो जाती है

परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है
जो संसार को चलायमान रखे हुए।

यदि हमें जीवन में शांति प्राप्त करनी है
तो हमें अपने मन की भावनाओं को सूक्ष्मता से समझना और नियंत्रण पाना होगा।

जैसे कि हमारा मन किन परिस्थितियों में कैसी और किस भावना में डूब जाता है और क्यों डूब जाता है ?
और
उस भावना के कारण हमारी कैसी मनोदशा हो जाती है ?

जिस प्रकार हम शत्रु पर विजय पाने से पूर्व उसकी शक्ति सामर्थ्य और बल आदि का अवलोकन करते हैं

ठीक उसी प्रकार हमें अपने मन पर विजय पाने के लिए अपने मन और उस में निवास करने वाली अनंत भावनाओं को जानना अति आवश्यक होता हैं
तभी उन पर अंकुश लगाना संभव हो सकेगा।

वैसे तो हमें सत्संग और भागवत कथाओं से बहुत सारे ज्ञान और प्रेरणाएं मिलती हैं

जो हमारे मन की शांति के लिए मील का पत्थर होती है
परंतु
वह ज्ञान भी आवश्यकता पड़ने पर वैसे ही लुप्त हो जाता है
जैसे
शमशान भूमि से निकलने के बाद हमारा वैराग्य लुप्त हो जाता है।


शांति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारे मन के भीतर निवास करने वाली असंख्य भावनाओं में पांच भावनाएं ऐसी हैं जिन्हें हम पंच विकार के रूप में जानते हैं।

जैसे कि - काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह और अहंकार।

यही पंच विकार वास्तव में माया का मूल स्वरूप है।

जिनके कारण ही हम जीवन भर सुख-दुख, हानि-लाभ,जय-पराजय,मान-अपमान द्वेष-क्रोध ईर्ष्या राग(आसक्ति) आदि भावनाओं में डूबते रहते हैं।
जो हमारे मन की अशांति का सबसे बड़ा कारण होती है।

मन की शांति इन भावनाओं से ऊपर उठने के पश्चात ही मिलती है।

हमें इन भावनाओं से मुक्त होना भले ही असंभव दिखाई देता हो
परंतु
इस जगत के रचयिता "जगत पिता" परमात्मा के लिए कुछ भी करना असंभव नहीं है।

वह घट घट वासी है और सर्वव्यापी भी।

किसका किस माध्यम और कैसे कल्याण करना है ?

हमारे लिए क्या आवश्यक है और क्या अनावश्यक है?
वे सब कुछ भली-भांति जानतें हैं।
उन की लीलाएं और कृपाएं हमारी बुद्धि और कल्पना से भी परे है।

अब सवाल यह है कि हमें प्रभु जी की कृपा कैसे प्राप्त हो।


मेरे प्यारे दोस्तों हम सत्संग विहीनता के कारण यह नहीं जानते हैं कि श्रीमद् भागवत गीता में श्री भगवान ने ऐसी है उपाय बताई है

जिनसे हमारे जीवन में शांति और मुक्ति एकदम सहज और सरलता से प्राप्त हो जाएगी।

वह है "भगवद् आश्रय" अर्थात "परमात्मा की शरणागति"।

अधिकांशत भाई बहन की यह समझते हैं कि अपने कर्म का त्याग करके परमात्मा की पूजा ध्यान साधना ही परमात्मा की शरणागति है
परंतु
वास्तव में शरणागति अर्थात समर्पण हमारे हृदय का एक भाव होता है

जिसमें हृदय के सच्चे भाव से स्वयं को परमात्मा के प्रति अर्पण कर देना ही समर्पण अर्थात शरणागति है।


कई भाई-बहन सवाल करते हैं कि-

"हम कैसे विश्वास करें कि "भागवत गीता* "परमात्मा" की ही वाणी है ?
यह सब तो ब्राह्मणों के द्वारा अपनी आजीविका चलाने हेतु लिखी गई पुस्तकें हो सकती हैं ?

मेरे प्यारे दोस्तों इस अंतर्द्वंद से भी हमें निजात मिल जाएगी
जब हम परमात्मा के शरणागत हो जाएंगे
जब हमें परमात्मा की शरणागति प्राप्त हो जाएगी।

जैसे मेरे जीवन में घटित हुआ था।

क्योंकि जब मैंने समर्पण की प्रार्थना की थी तब एक निश्चल बालक की भांति निष्पक्ष भाव से ईश्वर और अल्लाह दोनों का आवाहन किया था ।

फिर भी मुझे जो अनुभूतियां और भगवत कृपाऐं प्राप्त हुई

 उसकी पुष्टि केवल भागवत गीता के माध्यम से ही हुई ।

अर्थात भगवत कृपा से भागवत गीता को मैंने अपने अनुभव में सत्य पाया।


वैसे भी मेरे प्यारे भाइयों बहनों सत्य स्वयं सिद्ध होता हैं
 सत्य को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती है

जब आप समर्पण करेंगे तो आपके जीवन में सत्य स्वयं सिद्ध हो जाएगा।

इसीलिए प्रभु जी ने कहा है कि -

"सर्व धर्मान परित्यज्यै ,
मामेकं शरणं व्रज,
अहॅत्वा सर्वपापेभ्योः,
मोक्ष्श्चामि माशुचा।"

अर्थात - "सभी धर्मों और उसके भेदों(मतों) को भुलाकर केवल मेरी शरण में आ जाओ
मैं तुम्हें तुम्हारे सभी पापों से मुक्ति देकर शाश्वत शांति और मोक्ष प्रदान करूंगा।

सचमुच में मेरे प्यारे भाइयों बहनों प्रभु जी के इन कथनो को अपने जीवन में सत्य सिद्ध होते हुए देखा है

उसी से ही प्रेरणा पाकर हूं मैं फेसबुक और अन्य वेबसाइटों पर केवल प्रभु शरणागति की ही भावना का प्रसार करता रहता हूं।
लक्ष्य केवल एक ही है जनकल्याण।

अब सवाल ये है कि
 हमें परमात्मा की शरण कैसे मिले ?

क्योंकि लोग इसे बहुत दुर्लभ मानते हैं।

वास्तव में परमात्मा की शरणागति बड़ी ही सहज और सरल भी है

वास्तव में परमात्मा की शरणागति यूं तो एक प्रार्थना है
हमारे हृदय की एक भावपूर्ण पुकार है

जिसकी सफलता के लिए हमारे हृदय का भाव बहुत ही विशुद्ध होना आवश्यक है
परंतु
समर्पण की प्रार्थना यदि जल अर्पण करने के साथ की जाए तो एक संकल्प हो जाता है
जो निश्चय ही हमारे समर्पण को सफल सिद्ध करती है।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है।

अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।

तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं

भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है

जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।


"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"



(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -


1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।

2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना

अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।

।।जय श्री हरि।।







Peace of mind, मन की शांति कैसे पाएं, भागवत गीता
https://prabhusharanagti.blogspot.com/
1:08 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.9

श्री भागवत गीता
भाग.9



प्रभु जी निभाते हैं सच्चे सद्गुरू का नाता
बशर्ते आपके हृदय में सरलता, समर्पण, श्रद्धा और पूर्ण विश्वास भाव हो।

🙏

यदि आपके मन में अशान्ति अथवा प्रभु शरणागति से सम्बन्धित कोई प्रश्न ‌हो तो निःसंकोच इस ब्लाग पर टिप्पणी में लिखिएगा।
https://prabhusharanagti.blogspot.com

यथा संभव समय मिलते ही जवाब देने का प्रयास करूंगा।
आपके जीवन में शान्ति,मुक्ति, भक्ति (विशुद्ध प्रेम) और आनन्द हो यही मेरा कर्त्तव्य है,यही मेरी भगवद पूजा है।


ये अनुभव प्रसाद मैंने लगभग 8 वर्ष पूर्व फेसबुक पर तब शेयर किया था जब मैं कच्चा घड़ा था
उसी का कापी-पेष्ट है।

समय के अभाव में फेसबुक पर आने का समय नहीं मिलता है
क्योंकि नौकरी ही ऐसी है।
परन्तु
धैर्य रखना प्रभु जी ने मेरा नवनिर्माण आपके सेवार्थ ही किया है
बस आप की दुवाऐं और आषीश मिलती रहे।



सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"

**"समर्पण की प्रार्थना एक बार जलार्पण करते हुए अवश्य कीजियेगा"**

क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -




1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।




2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"





शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना

अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः

समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।



इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।


☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।


_/\_
।।जय श्री हरि।।

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12:53 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.8

भगवदगीता भाग.8


मन की अशांति के अनंत कारण होते हैं परंतु निदान बहुत ही सहज और सरल है वह है *परमात्मा की शरणागति*
फिर भी हम आपकी विश्वसनीयता के लिए मन की अशांति के उन कारणों और उनके निदान पर चर्चा करेंगे
जो मेरे गुरुदेव "श्री भगवान" ने मुझे अनुभव स्वरूप प्रदान किया

मेरा लक्ष्य आपके जीवन में शांति के साथ साथ उन आध्यात्मिक कृपाओं का भी उद्गम हो जो कि अति दुर्लभ और आवश्यक है

आपकी जिज्ञासा ही हमारी प्रेरणा है




🙏🙏🙏🙏🙏🙏
https://prabhusharana.blogspot.com/?m=0



सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।

Wednesday, February 26, 2020

6:54 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.7

लगभग 19 वर्ष की आयु में मैंने समर्पण की प्रार्थना करते हुए जगदीश्वर से माता-पिता और गुरु का नाता जोड़ते हुए जनसेवार्थ की भावना से "जीवन के सर्वश्रेष्ठ सेवा मार्ग" पर चलाने की प्रार्थना की। तत्पश्चात जगतप्रभु जी ने सचमुच एक सच्चे और महान गुरु की भांति पहले तो माया का दर्शन कराते हुए मानवीय विवशताओं और भटकावों का बोध कराया फिर माया से मुक्ति प्रदान कर प्रेम, शांति, भक्ति, मुक्ति और आनन्द आदि स्थितियां सहज ही प्रदान करते हुए। निःस्वार्थ सेवा भाव से समर्पण भाव बांटने की प्ररेणाऐं भी प्रदान की। मेरे प्यारे दोस्तों तन,मन,धन से की गई सेवा तो केवल कुछ काल तक ही प्रभावी हो सकती है परन्तु यदि हमें परमात्मा की शरण(आश्रय) मिल जाए तो जीवन में असम्भव दिखाई देने वाली मनःशान्ति भगवद कृपाओं से सहज ही प्राप्त हो जाती है तथा जन्म-जन्मांतर की भटकन भी समाप्त हो जाती हैं। यदि आप ईश्वरीय सत्यता की अनुभूतियां और कृपाऐं पाना चाहते हैं तो एक बार अंजलि अथवा एक लोटा जल गिराते हुए निष्पक्ष भाव से समर्पण की प्रार्थना अवश्य कीजिएगा "भगवद आश्रय" से आपके जीवन में दुर्लभ भगवद कृपाऐं सहज हो जाएगी। कृपया इस ब्लाग को किसी प्रकार का धार्मिक प्रचार ना समझें। ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए । *सभी पन्थियों के लिए बहुमूल्य और कल्याणकारी* *सबका मालिक एक है* *मानव जीवन अनमोल है* *परमात्मा से बेहतर इस संसार में कोई सहारा नहीं* आपके प्रश्न, जिज्ञासा और सेवा ही हमारी प्रेरणा तथा लछ्य हैं अतः कमेंट बॉक्स में निःसंकोच लिखें। मैं यथा सम्भव समय निकाल कर आपके कमेंट का जवाब शीघ्र देने का प्रयास करुंगा। आपका सेवक - एक प्रभु शरणागत भक्त (शिवप्रसाद
बर्मा)।

Wednesday, February 12, 2020

3:38 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.6

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
2:23 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.5

सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।

"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।


"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
https://prabhusharana.blogspot.com/?m=0


1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।




2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"




शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।


इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।


☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।

एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।

https://prabhusharana.blogspot.com/?m=0

_/\_
।।जय श्री हरि।।

Monday, February 10, 2020

7:19 PM

🙏 आप पूजा,पाठ,योग, साधनाएं कुछ भी ना करें केवल कर लें ये एक छोटी सी प्रार्थना बस एक दिन एक लोटा अथवा एक अन्जलि जलार्पण के साथ। शांति ,मुक्ति, भक्ति और प्रभु जी की अनन्य कृपाऐं 100% निश्चित।

ॐ।जय श्री हरि।ॐ
"प्रभु शरणागति"

शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी
कल्पनाऐँ है ?
मैँ सत्सँग विहीन इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे
कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के
मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे
महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक
है
जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले
मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से
समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के
द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से
कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवावस्था की
शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति
के हाथोँ की कठपुतली बन गया
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।
ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत
तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।
परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब
"भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि
ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल
था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को
ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही
माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ते हुए
"जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग" पर चलाने की
प्रार्थना कर बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू
छलक आए कि
"प्रभु जी सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते
भी है केवल हमारे हृदयगत भाव सच्चे होने
चाहिए।"
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द
सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता"
का पार्ट देख रहा था
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान
प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और
कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा
था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को
विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब
मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि
मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ
से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की
झोली फैला रखी है ।
तब
भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना
चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योग
,साधना , पूजा आदि की शिछा दी है सब भूल
जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया
परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे मुझे फूट-फूट कर रोने
को विवश कर दिया।)
"सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला
कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक
रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता
है ।"....
"सर्व धर्मान परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान
के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर आप
लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने
का प्रयास करता रहता हूँ ।

🙏
https://prabhusharana.blogspot.com/2020/02/100.htmlमन के शांति की 100% गारंटी"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।

क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।

"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।


2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"

3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।

4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं

ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।

आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।

☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।

जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।


🙏🙏🙏🙏🙏

"हे जगदीश्वर ,हे दीनदयाल , हे घट घट वासी
परमात्मा "
आपके समान कोई ज्ञाता नही ।
आपके समान कोई दाता नही ।
और आपके समान कोई दूजा शरणागत भक्तवत्सल
नही ।
अतः हे प्रभू मैँ अपना तन ,मन ,धन ,जीवन आपको
अर्पण करता हूँ अब इसे आप ही सँभालिए और
सार्थक कीजिए ।"
जब हम स्वयँ के अहँकार(बल,बुद्धि,ज्ञान की
श्रेष्ठता की भावना) को त्याग कर एक अबोध
बालक की भाँति अपनी जीवन रूपी नैय्या की
पतवार प्रभु के हाथोँ में सौंप देते हैँ
तो
करुणासागर की असीम कृपा से हमें वो सब
प्राप्त होने लगता है
जो हमारे लिए अनिवार्य और अत्यन्त आवश्यक
होता है ।
हे मेरे प्यारे मित्रों शँसय रहित हो नित "प्रभु
जी" से शरण मेँ लेने की पुकार करो ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।"
ये प्रार्थना किसी पवित्र स्थान अथवा
शिवलिँग पर जल अर्पण करते हुए करेँ तो अति
उत्त्म होगा ।
क्योँ कि जल सँकल्प का भी कार्य करती है ।

कृपया इस लेख को किसी प्रकार का प्रर्दशन ना समझें
ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और
मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए।

प्रभु जी आप सभी आदरणीय व प्रिय मित्रों को
अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु शरणागत भक्तवत्सल की ।।
।।जय जय श्री राधे कृष्णा।।
6:45 PM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.3

भागवत गीता भाग.3




सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
जय जय श्री राधेकृष्णा।



"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है

अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।



क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।



"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -



1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।

https://prabhusharana.blogspot.com/?m=0




2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"




3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
 परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।



4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।

https://prabhusharana.blogspot.com



प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं



ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।


आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।



कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।



☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।


जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
_/\_
।।जय श्री हरि।।
9:27 AM

परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.1

🙏
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए भी अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"

(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -

1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" मै नहीं जानता कि आप ईश्वर है या अल्लाह,

परन्तु आप जो भी है इस सम्पूर्ण जगत के पालनहार और सर्व-समर्थ है

अतः इस जीवन नैया की पतवार अब आपको सौंपता हूं

इसे अब आप ही सँभालिए।





2 ."हे करूणासागर" "हे दीनदयालु" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,

मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"



शरणागति का अर्थ है - "अपना समस्त अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना

अर्थात

अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना



ध्यान रहे कि -"सबका मालिक एक है"

अर्थात ईश्वर एक है

परमात्मा की *शरणागति* की योग्यता हमें तभी मिलेगी

जब हम अपने ज्ञानाभिमान से शून्य होंगे।

क्यों कि भिछा उसी पात्र में डाली जाती है

जो ख़ाली होती हैं।



अतः

समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ

प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।

इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ

ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है

जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।





☆समर्पण की प्रार्थना जीवन में कम से कम एक बार एक लोटा जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।

एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है

जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆

साथ ही

ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है

वो जो भी करेंगे

उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता 

क्यों कि 

हमारे लिए क्या उचित है और क्या अनुचित ये परमात्मा से बेहतर और भला कौन जान सकता है।

_/\_
सादर सहृदय प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों बहनों ।
।।जय श्री हरि।।