"प्रभु शरणागति"
शरणागति क्या होती है ?
इसके क्या लाभ होते हैँ ?
ईश्वरीय सत्ता जैसा कुछ है भी या केवल हमारी
कल्पनाऐँ है ?
मैँ सत्सँग विहीन इन सभी बातोँ से अनभिज्ञ मेरे
कदम अपनी स्वार्थ की गठरी लिए गली के
मन्दिर पर पहुँच गया ।
प्यारे दोस्तोँ ये मेरे जीवन का एक सबसे
महत्वपूर्ण पल बन गया था ।
जिसका वर्णन विस्तार से करना अति आवश्यक
है
जिससे साधारण से साधारण बौद्धिक स्तर वाले
मित्र भी शरणागति की भावना को सुगमता से
समझ सकेँ ।
प्यारे दोस्तोँ ये निश्चय ही बचपन मेँ माँ के
द्वारा एक महात्मा के सत्सँग की प्रेरणा से
कराया गया "समर्पण" का सुपरिणाम था ।
प्यारे मित्रोँ अपनी इस युवावस्था की
शरणागति के बाद मैँ स्वयँ जैसे किसी पराशक्ति
के हाथोँ की कठपुतली बन गया
जिसका आभास मेरे अहँकार टूटने के बाद हुआ ।
ये जानने के लिए कि ये पराशक्ति कोई भूत-प्रेत
तो नही "बाला जी" गया और हरिद्वार भी।
परन्तु मन को ये जान कर परम सन्तोष हुआ जब
"भागवत गीता" के माध्यम से ये ज्ञात हुआ कि
ये सब तो उस श्रद्धा और विश्वास का कमाल
था कुछ ही वर्षोँ पहले मन्दिर मेँ स्वयँ को
ईश्वर के सुपुर्द(शरण) करते हुए जगदीश्वर से ही
माता-पिता और गुरू का रिश्ता जोड़ते हुए
"जीवन के सर्वश्रेष्ठ मार्ग" पर चलाने की
प्रार्थना कर बैठा था ।
प्यारे मित्रोँ ये लिखते हुए मेरी आखोँ से आँसू
छलक आए कि
"प्रभु जी सच्चे हृदय से बनाए गये रिश्ते निभाते
भी है केवल हमारे हृदयगत भाव सच्चे होने
चाहिए।"
सँजोग वश पहली बार "यू ट्यूब" पर रामानन्द
सागर कृत "श्री कृष्णा" का "भागवत गीता"
का पार्ट देख रहा था
हर पार्ट पर अश्रु धारा फूट पड़ती।
ये आँसू जगदीश्वर की लीलाओँ के माध्यम से ज्ञान
प्रदान करने के कारण उपजी श्रद्धा भाव और
कृतज्ञ्नता के थे ।
मेरे शरीर का रोम-रोम रोमाँचित हो रहा
था ।
परन्तु अन्तिम भाग ने तो फूट-फूट कर रोने को
विवश कर दिया जिसमेँ -
अर्जुन श्री भगवान से कहते हैँ - "हे केशव" अब
मुझे कुछ नही पूछना ,कुछ नही जानना । यदि
मेरी प्रश्नोँ की सीमाओँ से परे कुछ अपनी तरफ
से मुझे बताना चाहतेँ हैँ तो मैने अपने मन की
झोली फैला रखी है ।
तब
भगवान श्री कृष्ण ने कहा - यदि वो जानना
चाहते हो तो सुनो "अब तक मैने जिन योग
,साधना , पूजा आदि की शिछा दी है सब भूल
जाओ ।"
(इतना सुनते ही मैँ स्वयँ भी हैरत मेँ पड़ गया
परन्तु आगे के वाक्योँ ने मुझे मुझे फूट-फूट कर रोने
को विवश कर दिया।)
"सभी योग साधनाओँ ,पूजा विधियोँ को भुला
कर मेरी शरण मेँ इस प्रकार आओ जैसे एक बालक
रोता भागता अपनी माँ की गोद मेँ पनाह लेता
है ।"....
"सर्व धर्मान परित्यज्यै,
मामेकं शरणं ब्रिज।
अहँत्वा सर्वपापेभ्योः ,
मोछश्चामि माशुचा ।
हे मेरे प्यारे दोस्तोँ अपने जीवन मेँ श्री भगवान
के इस कथन को पूर्णतया सत्य पाया ।
इसी कारण अपने अनुभवोँ से प्रेरित होकर आप
लोगोँ के हृदय मेँ शरणागति भावना के बीज बोने
का प्रयास करता रहता हूँ ।
🙏
https://prabhusharana.blogspot.com/2020/02/100.htmlमन के शांति की 100% गारंटी"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें जीवन में वह धन मिलने लगता है जो हमारे जीवन के साथ भी सार्थक होता है और जीवन के बाद भी ।
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी, भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा या एक अंजलि जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
3. "हे जगत पिता" "हे जगदीश्वर" ये संसार आपको भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है कोई अल्लाह कहता है तो कोई ईश्वर, कोई ईशा पुकारता है तो कोई वाहेगुरु
परंतु हे नाथ आप जो भी हैं जैसे भी हैं अब मैं अपने आप को आप की शरण में सौंपता हूं ।
4. हे जगत प्रभु आपका सच्चा स्वरूप क्या है इस जीवन का उद्देश्य क्या है यह मैं नहीं जानता ।
अब मैं जैसा भी हूं खोटा या खरा स्वयं को शिष्य रूप में आपको अर्पण करता हूं।
आप समस्त जगत् के गुरू हैं अतः आपसे आप में आप मेरे भी गुरु हैं
हे शरणागत भक्तवत्सल अपने शरणागत को शिष्य रूप में स्वीकार करने की कृपा करें।
प्यारे दोस्तों शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का समस्त अहँकार अर्थात अपने ज्ञान और बुद्धि की श्रेष्ठता का भाव ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना करते समय यह भूल जाएं कि इस संसार में ईश्वर ही सत्य है अल्लाह ही सत्य हैं ईशा ही सत्य है
क्योंकि
यह वह कट्टरता का भाव है जिसके आधीन होकर हम एक ही ईश्वर को अनेक रूपों में बांटते और अनुसरण करते हैं
ऐसा हमारे अहंकार भाव अर्थात जगत व्यापी माया के कारण जानिए
जिसके वशीभूत हो हम एक ही ईश्वर को अनंत रूपों में बांटते और नए नए पंथ-मतों का निर्माण करते जा रहे हैं ,
इसलिए
कम से कम समर्पण की प्रार्थना करते समय निष्पछ भाव से ही करेँ ।
आपके एक हृदयगत समर्पण पर मात्र से ही भगवत कृपा से धीरे धीरे आपके जीवन में सत्य असत्य का बोध हो जाएगा
तथा
जीवन शांति मुक्ति भक्ति प्रेम और आनंद से भरपूर हो जाएगा।
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
कृपया इस प्रेरणा को प्रर्दशन अथवा धार्मिक प्रचार ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
क्योंकि
प्रभु जी ने एक घटना चक्र के माध्यम से मुझे निस्वार्थ सेवा भाव से जीवन जीने का संकल्प कराया था।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि
हमारे समर्पण में अनिवार्य विशुद्ध
भावनाओं के अभाव को पूरा करता है।
जो संकल्प के माध्यम से निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे और जैसा भी करवाएंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
🙏🙏🙏🙏🙏
"हे जगदीश्वर ,हे दीनदयाल , हे घट घट वासी
परमात्मा "
आपके समान कोई ज्ञाता नही ।
आपके समान कोई दाता नही ।
और आपके समान कोई दूजा शरणागत भक्तवत्सल
नही ।
अतः हे प्रभू मैँ अपना तन ,मन ,धन ,जीवन आपको
अर्पण करता हूँ अब इसे आप ही सँभालिए और
सार्थक कीजिए ।"
जब हम स्वयँ के अहँकार(बल,बुद्धि,ज्ञान की
श्रेष्ठता की भावना) को त्याग कर एक अबोध
बालक की भाँति अपनी जीवन रूपी नैय्या की
पतवार प्रभु के हाथोँ में सौंप देते हैँ
तो
करुणासागर की असीम कृपा से हमें वो सब
प्राप्त होने लगता है
जो हमारे लिए अनिवार्य और अत्यन्त आवश्यक
होता है ।
हे मेरे प्यारे मित्रों शँसय रहित हो नित "प्रभु
जी" से शरण मेँ लेने की पुकार करो ।
"कभी तो दीनदयाल के भनक पड़ेगी कान ।"
ये प्रार्थना किसी पवित्र स्थान अथवा
शिवलिँग पर जल अर्पण करते हुए करेँ तो अति
उत्त्म होगा ।
क्योँ कि जल सँकल्प का भी कार्य करती है ।
कृपया इस लेख को किसी प्रकार का प्रर्दशन ना समझें
ये प्रेरणाएं आप पर भगवद् कृपा और
मेरे जनसेवार्थ संकल्पबद्धता के कारण जानिए।
प्रभु जी आप सभी आदरणीय व प्रिय मित्रों को
अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय प्रभु शरणागत भक्तवत्सल की ।।
।।जय जय श्री राधे कृष्णा।।
सादर सहृदय_/\_प्रणाम मेरे प्यारे भाइयों, बहनों।
ReplyDeleteजय जय श्री राधेकृष्णा।
"समर्पण का एक संकल्प बदल सकती है आपके मन और जीवन की दशा और दिशा"
क्यों कि जिसे भगवद् शरण मिल जाए
उसका जीवन सर्वब्यापी परमात्मा के द्वारा आरछित-सुरछित हो जाता है
अनहोनी से बचाव और होनी में मंगल छिपा होता है।
तथा मायापति की माया से भी अभयता मिलती है
क्यों कि माया का मूल स्वरूप हमारे मन में स्थित भावनाऐं है
जिन्हें हम भवसागर कहते हैं
भगवद कृपाओं से हमें इसमें तैरना आ जाता है
जिसके कारण हमारा मन विपरीत विषम् परिस्थितियों में भी शान्ति,प्रेम, और आनन्दमयी रहना सीख लेता है।
"हमारे व हमारे अपनों के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण, सद्गुण प्रदायिनी,भवतार
िणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
(जिसे स्वयँ के साथ बच्चों से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ) -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ भी परमात्मा के श्री चरणोँ मे अर्पण कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर परमात्मा को सौँप देना
अतः
समर्पण की प्रार्थना निष्पछ भाव से ही करेँ
प्रभु जी रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी।
इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही जनसेवार्थ बाँट रहा हूँ।
☆समर्पण की प्रार्थना कम से कम एक बार एक लोटा या एक अंजलि जल अर्पण करते हुए अवश्य करें ।
एसा करने से हमारा परमात्मा के प्रति समर्पण का सँकल्प हो जाता है
जो कि निश्चय ही फलदायिनी सिद्ध होती है ।☆
साथ ही
ये पूर्ण विश्वास रखें कि अब आपकी जीवन नैइया प्रभु जी के हाथों में है
वो जो भी करेंगे
उससे बेहतर आपके जीवन के लिए कुछ और नही हो सकता ।
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।।जय श्री हरि।।