परब्रम्ह प्रभु जी के अनमोल वचन(श्री भागवत गीता) भाग.26 और भावपूर्ण अनमोल प्रेरणाएं
"सफल शरणागति का रहस्य"
"पूर्ण समर्पण"
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भगवद कृपा से शान्ति ,मुक्ति ,भक्ति आपके जीवन मेँ सहज हो जाऐगी
यदि आपको प्रुभु सँरछण अर्थात "भगवद शरण" मिल जाऐ ।
"समर्पण" की सफलता का एक ही आधार है -"पूर्ण समर्पण" ।
तो आइये जानेँ पूर्ण समर्पण क्या है ?
"पूर्ण समर्पण" ना तो घर-द्वार छोड़ सन्यास को कहतेँ है
और ना ही अपनी जिम्मेदारियोँ(कर्तब्योँ) का त्याग पूजन आदि लगने को कहते हैँ ।
"पूर्ण समर्पण" है परमात्मा मेँ पूर्ण विश्वास भाव से अपने जीवन का समस्त भार(दायित्व) परमात्मा को सौँप देना
परन्तु
एक अज्ञानी अबोध बालक की भाँति ।
अज्ञानी अबोध बालक का तात्पर्य है कि -
"हमारे भीतर तनिक भी अपने ज्ञान के प्रति श्रेष्ठता का भाव(अहँकार) ना हो कि श्री राम ही सत्य,
श्री कृष्ण ही सत्य,
श्री शिव ही सत्य,
अल्लाह सत्य ,साँई सत्य , कबीर सत्य ,ईशा सत्य आदि आदि
इस प्रकार की सत्यता का भाव भी अहँकार का ही प्रतीक होता है
जब कि
समर्पण मेँ इन्ही श्रेष्ठता के भावोँ का ही बलिदान चढ़ाना होगा ।
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*इस कथन पर सँदेह ना कीजिएगा क्योँ कि भविष्य मेँ सत्य स्वयँ सिद्ध हो जाऐगा और आपका भगवद प्रेम भी अगाध हो जाऐगा*
उदाहरण स्वरूप जब मैने भगवद सत्ता के सम्मुख समर्पण किया तो उस समय प्रभु श्री राम ,प्रभु श्री कृष्ण और माँ जगदम्बा से अनन्य प्रेम था परन्तु
मैने अपने बुद्धि और ज्ञान के श्रेष्ठता के भावोँ को तूल देने के बजाय
एक पूर्ण अज्ञानी की भाँति अल्लाह को भी पुकारा और भगवान को भी वो कुछ इस प्रकार थी -
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"हे जगदीश्वर" ,"हे समस्त सृष्टि के आधार" कोई आपको अल्लाह पुकारता है तो कोई ईश्वर , आप हमारी ज्ञान ,बुद्धि और तर्क से परे हैँ
अतः आप जो भी हैँ ,जैसे भी है इस जीवन नैइया की पतवार अब आपको सौँपता हूँ इसे आप ही सम्भालिए ।
"पूर्ण समर्पण" का दूसरा आधार है -"अपनी समस्त इच्छाऐँ-कामनाऐँ परमात्मा को अपर्ण कर देना है
अर्थात
अपना बर्तमान और भविष्य जगत प्रभु जी की इच्छा पर छोड़ कर कर्म करना है ।"
ऐसा तभी सम्भव है जब हमारे ज्ञान और बुद्धि मेँ ये भाव हो कि - जगदीश्वर ही इस जगत मेँ "सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता और दाता हैँ
"हम अपने अल्प ज्ञान और अल्प बुद्धि से जिस विषय और वस्तु को मायावश सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि मानतेँ हैँ
कदाचित सम्भव है कि वो ज्ञान सागर परमात्मा की दृष्टि मेँ तुच्छ ,सारहीन और अमँगलकारी हो ।
क्योँ कि
हमारे लिए क्या आवश्यक है और क्या अनावश्यक इसका प्रभु जी को भली भाँति ज्ञान होता है ।
पूर्ण समर्पण और सफलता का तीसरा आधार है -
"समर्पण का सँकल्प"
हम सभी ने पौराणिक कथाओँ मे देखा-सुना ही होगा कि जब कोई विशेष निर्णय लिया जाता है तो हाथोँ मेँ जल लेकर अपने वचन ,निर्णय ,दान अथवा श्राप देते हुए धरती पर गिराया जाता है यही क्रिया सँकल्प होती है ।
उदाहरण स्वरूप जब तक प्रह्लाद पौत्र राजा बलि ने हाथोँ मेँ जल लेकर तीन पग धरती दान करने का सँकल्प नही कर लिया
तब तक वामन रूप प्रभु जी ने अपना पग नही बढ़ाया
परन्तु
राजा बलि के सँकल्पबद्ध होते ही दो पग मे सारी धरती नाप ली
क्योँ कि
अब राजा बलि भी सँकल्पबद्धता के कारण अपने वचन से मुकरने का अधिकार खो बैठे थे ।
मैँ प्रायः अपने सफल शरणागति के सम्बन्ध मेँ जब डूब कर इसका अध्ययन करता हूँ कि -
"आखिर बचपन मेँ महात्मा ने माँ को एक लोटा जल गिराते हुए समर्पण के प्रार्थना करने और कराने की प्रेरणा क्योँ दी ?
तो
अन्तरात्मा एक ही निष्कर्ष निकालती है कि -
"हमारे समर्पण की सफलता के लिए हम सभी मेँ प्रायः वो भाव नही होते जिसका होना आवश्यक है ।
इसी कारण ही उस महान सन्त आत्मा ने हमेँ समर्पण के साथ-साथ जल अर्पण कर सँकल्प लेने की प्रेरणा दी ।
ये सँकल्प मात्र एक बार ही करना प्रयाप्त है
परन्तु
भगवद विषय है अतः अपनी सुविधा और इच्छानुसार प्रतिदिन करेँ तो भी कोई हर्ज नही ।
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मेरे प्यारे भाइयोँ बहनोँ मेरे जीवन का मुख्य लछ्य ही यही है कि
आपके जीवन मेँ भगवद कृपा का आधार हो ,
आपके जीवन मेँ शान्ति ,मुक्ति ,भक्ति ,प्रेम और आनन्द का सँचार हो ।
क्योँ कि
इसी सेवा को ही प्रभु जी ने सर्वोपरि जताया और जनसेवार्थ सँकल्पबद्ध भी कराया है ।
अतः समर्पण की प्रेरणा सहित अपने इस सेवक का _/\_प्रणाम स्वीकार करेँ ।शांति की 100% गारंटी ,प्रेम, आनन्द, मोछ और अनन्त फल प्रदायिनी ईश्वरीय अनुभव, अनमोल भावपूर्ण प्रेरणाएं "मैं कोई धर्म प्रचारक नहीं जनसेवार्थ ही प्रेरणाएं बांट रहा हूं आपका एक हृदयगत समर्पण बदल देगी आपके जीवन की दशा और दिशा।"
_/\_प्रभु जी हम सभी को अपना निर्मल आश्रय प्रदान करेँ ।
।।जय जय जय प्रभु श्री शरणागत भक्तवत्सल की।।
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"अनमोल भगवद प्रसाद"
"हमारे व अपनोँ के जीवन के लिए अति कल्याणकारी और महत्वपूर्ण ,सद्गुण प्रदायिनी ,भवतारिणी,शान्ति, भक्ति(प्रेम) और मोछप्रदायिनी भावना(प्रार्थना)"
"(जिसे स्वयँ के साथ बच्चोँ से भी किसी शुद्ध स्थान अथवा शिवलिँग पर कम से कम एक बार तो एक लोटा जल चढ़ाते हुए अवश्य करेँ और करवाऐँ)" -
1 ."हे जगतपिता", "हे जगदीश्वर" ये जीवन आपको सौँपता हूँ
इस जीवन नैया की पतवार अब आप ही सँभालिए।"
2 ."हे करूणासागर" मैँ जैसा भी हूँ खोटा-खरा अब आपके ही शरण मेँ हूँ नाथ,
मेरे लिए क्या अच्छा है क्या बुरा , अब सब आपकी जिम्मेदारी है।"
शरणागति का अर्थ है - "अपने मन का अहँ-अहँकार ,अपनी समस्त कामनाऐँ परमात्मा के श्री चरणोँ मे विलीन कर देना
अर्थात
अपने जीवन की बागडोर जगदीश्वर को सौँप देना
प्रभु रिश्ते भी निभातेँ है यदि पूर्ण श्रद्धा और विश्वास हो तो गुरू का भी
कृपया इस पोस्ट को प्रर्दशन ना समझेँ
ये मेरे अनुभवोँ और भागवद गीता का सार है
जिसे भगवद प्रेरणा से ही बाँट रहा हूँ ।
जिसकी सफलता आपके विश्वास पर निर्भर है ।
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🙏 धन्यवाद जी।
आपके कमेंट हमारे लिए प्रेरणा है।